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पत्र : 00
प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ। 'पुरुषार्थ करने पर भी इच्छित फल की प्राप्ति नहीं होती है, तब दूसरे जीवों को कारण नहीं मानना, उनके प्रति द्वेष नहीं करना, परंतु अपने ही लाभांतराय कर्म को कारण मान कर, उस कर्म को तोड़ने का पुरुषार्थ करना।' यह बात तुझे जच गई, तेरे मन का समाधान हुआ... तेरे मित्र को भी नई दृष्टि प्राप्त हुई... यह सब जानकर मुझे आनंद हुआ है।
चेतन, जिन लोगों को, इस तरह का कर्मसिद्धांत का ज्ञान नहीं होता है, वे लोग दूसरे जीवों पर किस-किस तरह के आरोप मढ़ते हैं और द्वेषजाल में फँसते हैं, इसके कुछ दृष्टांत बताता हूँ। - 'जब से घर में इस लड़की का जन्म हुआ है तब से धंधे में नुकसान ही हो रहा है... एक पैसा भी कमाया नहीं है...।' लड़की के प्रति रोष, उसके
साथ रूक्ष व्यवहार और तिरस्कार | - 'जब से यह लड़के की बहु घर में आई है, तब से किसी व्यापार में
कामयाबी नहीं मिल रही है। एक नया पैसा भी प्राप्त नहीं हुआ है।'
पुत्रवधू के प्रति दुर्भाव, द्वेष और अनादर। - मेरा बड़ा भाई कितना कृपण है? लाखों रुपये हैं उसके पास, मैंने कितनी
बार पैसे माँगे? पचास/ सौ रुपये भी नहीं देता है। क्या करेगा लाखों रुपयों का? महान कंजूस है... मरकर नरक में जाएगा।' भाई के प्रति
वैरभावना, वैमनस्य और तिरस्कार । इस प्रकार नहीं सोचना चाहिए। ऐसे विचार करने से अनेक प्रगाढ़ पाप कर्म बँधते हैं और वे कर्म जीव को दुर्गति में ले जाते हैं।
राजगृही के भिखारी का दृष्टांत, पंडित श्री वीरविजयजी ने अंतराय कर्म निवारण की पूजा में दिया है। घर-घर वह भिखारी भिक्षा माँगने जाता है, परंतु उसको कोई भी स्त्री-पुरुष भिक्षा नहीं देते हैं। तीन दिन तक भिक्षा के लिए
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