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● साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
बार जन्म-मरण के चंक्रमण में पड़ना पड़ता है, वस्तुतः वही पड़ाने वाली वृत्ति कषाय है । जो मनोवृत्तियाँ आत्मा को कलुषित करने वाली हैं जिनके प्रभाव से आत्मा अपने स्वरूप से भ्रष्ट हो जाता है, वह वस्तुतः कषाय है | आवेग और लालसा विषयक वृत्तियाँ कषाय का प्रजनन करती हैं और इन वृत्तियों का नाना प्रकार से व्यवहार कषाय- कौतुक को जन्म प्रदान करता है ।
कषाय के भेद करते हुए जैनाचार्यों ने अनेक विध विचार किया है - सामान्यतः कषाय को दो रूपों में विभक्त किया जा सकता है । यथा
(१) कषाय
(२) नोकषाय *
कषाय मुख्यतः चार प्रकार की कही गई है । यथा-(१) क्रोध
माया
इन चारों कषायों को अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, तथा संज्वलन की दृष्टि से प्रत्येक की चार-चार अवस्थाएँ कही गई हैं ।" नोकषाय के नौ भेद किए गए हैं। यथा
(१) हास्य (३) अरति
(२) मान (४) लोन
(२) रति (४) शोक (६) जुगुप्सा (८) पुल्लिंगवेद
(५.) भय
(७) स्त्रीवेद
(e) नपुंसक वेद
इस प्रकार कषाय के कुल मिलाकर पच्चीस भेद आगम में उल्लिखित हैं ।"
आगम में एक संवादात्मक प्रसंग आया है। तीर्थंकर महावीर इन्द्रभूति से कहते हैं कि मूलतः कषाय हैं चार ही क्रोध, मान, माया और लोभ । यहाँ इन्हीं चार कषायों के विषय में सूक्ष्म तथा वैज्ञानिक संक्षिप्त विश्लेषण निम्न प्रकार से किया जा सकता है । यथा
क्रोध- कषाय
भगवती सूत्र में क्रोध कषाय की बड़ी सूक्ष्म व्याख्या की गई है । क्रोध वस्तुतः एक मानसिक संवेग है, उसकी उत्तेजना अतिरिक्त है जिसके जाग्रत होने से प्राणी भावाविष्ट हो जाता है और तब उसकी विचार-क्षमता तथा तर्क-तेज निस्तेज हो जाता है। आवेग का उत्कर्ष युयुत्सा को जन्म देता है और युयुत्सा कालान्तर में अमर्ष को उत्पन्न कर देता है । अमर्ष का सीधा प्रयोग- परिणाम आक्रमण ही होता है । विचारणीय बात यह है कि क्रोध में आवेग आक्रमण तथा भय में आवेग रक्षा विषयक प्रयास करता है ।
क्रोध जगते ही शरीर की दशा में परिवर्तन होने लगते हैं । जीवनचर्या की पूरी प्रक्रिया प्रभावित हो जाती है । आमाशय की क्रिया शिथिल, रक्तचाप असंतुलित, हृदय की गति में व्यतिक्रम तथा मस्तिष्क में ज्ञानतंतुओं की अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है । इसी बात को शास्त्रीय शब्दावलि में कहा जा सकता है कि चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होने वाला, उचित-अनुचित का विवेक नष्ट कर देने वाला प्रज्वलन रूप आत्मा का परिणाम वस्तुतः क्रोध कहलाता है ।
१२२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
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