Book Title: Sadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Author(s): Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 664
________________ Halasasans aAcak.inburalobaeBAKIRTAIMAADMARA T HISRKare साबालपनली आमनन्दन ग्रन् NEERESTHE NERARAMMAMATARNARRATESAMEENAINMEANISee.TERIMINAKRAINERAMMARRIVARAHATMEONEnerwww w wENTERNSARARIMARC MEANIRAHINEKHARIFitne दूसरी ओर अनाहत से जुड़ा हुआ है। इन दोनों के संयोग-स्थलरूप रुद्रग्रन्थि के ऊपरी भाग से अवबोधक चेतना और प्रेरक चेतना का नियमन होता है। शरीर में यह स्थल भ्र मध्य में माना जाता है । इससे कुछ नीचे कष्ठ के पास विशुद्धि चक्र है, जहाँ से अत्यन्त सूक्ष्म ज्ञान और क्रिया चेतना का नियमन होता है। यहाँ आकाश तत्त्व की प्रधानता होने से आकाश के गुण शब्द की उत्पत्ति एवं उसके ग्रहण का नियमन केन्द भी यहीं है। इससे नीचे हृदय के पास सुषुम्ना के इस अंश का नीचे वाला भाग है, जिसे वायु का स्थान कहते हैं। समग्र स्पर्श चेतना एवं अंग-प्रत्यंगों के कम्पन तथा गति का नियमन, यहाँ तक कि रक्त की गति का नियमन भी इसी केन्द्र से होता है । (४) सहस्र दल-पद्म-उपर्युक्त पद्धति से कुण्डलिनी-प्रबोधन के पश्चात् जब वह अपने स्थान को छोड़कर उत्थित होती है तो शरीर में स्फूरण होने लगता है। जैसे-जैसे यह महाशक्ति चक्रों का भेदन करती हुई ऊपर की ओर बढ़कर सहस्र दल पद्म में पहुँचती है तो शरीर निर्विकल्प समाधि की दशा में भारहोन हो जाता है तथा चिदानन्द प्राप्ति की अनुभूति होती है । यही मनुष्य की साधना का अन्तिम लक्ष्य है। कहा जाता है कि आज्ञाचक्र से सहस्रार के बीच 'असी' और 'वरुणा' नामक दो नाडियाँ हैं। यही स्थान वाराणसी' नाम से जाना जाता है। यही इन दोनों का सङ्गम स्थान है। आज्ञाचक्र से आगे का मार्ग अति जटिल है क्योंकि यह 'कैलाश-मार्ग' है । कुण्डलिनी मूलाधार से उठकर आज्ञाचक्र तक तो पहँच जाती है, किन्तु वहाँ से आगे इसको ले जाना साधक के वश की बात नहीं होती। इसलिये गुरु स्वयं-शिष्य की योग्यता, भक्ति, श्रद्धा आदि देखकर अपनी शक्ति से कुण्डलिनी को इस दुरूह मार्ग से पार करवाकर सहस्रार तक पहुँचाते हैं। ____ नारियल के अति कच्चे गूदे के समान सहस्रार-पद्म में विद्यमान पदार्थ में सहस्रदल कमल की कल्पना करके उसके सहस्र पत्रों में से बीस-बीस पत्रों पर वर्णमाला के पचास अक्षरों में से एक-एक अक्षर के अङ्कित होने का संकेत शास्त्रों में किया गया है। इस प्रकार वर्णमाला की आवृत्तियाँ होने से यक्षिणी आदि सहस्र शक्तियाँ अंकरित होती हैं। यक्षिणी आदि सहस्र शक्तियों के समष्टि रूप शूक्र धातु की अधिष्ठात्री याकिनी शक्ति प्रकट होती है। यही याकिनी शक्ति विश्वरूपिणी, एकविंशतिमुखी, समस्त धातु एवं तत्त्वरूपिणी परणिव में आसक्त कूल-कुण्डलिनी की रूपान्तर-स्वरूपिणी भैरवी-भ्रमरनादोत्पादिनी शक्ति है । सहस्रार चक्र की स्थिति मस्तिष्क में मानी गयी है । इसका वर्ण कर्पूर के समान है। इसकी कणिका के मध्य पाशवकल्प से परमात्मा की भावना और वीरकल्प एवं कुलकल्प में पूर्णचन्द्राकार की भावना होती है । इसके मध्य में परशिव-गुरु का स्थान है। इसके ऊपर ब्रह्मरन्ध्र है और उसके बीच शून्य स्थान में स्थित परशिव से कुण्डलिनी को जगाकर संयोग कराना ही उपयोग-रूप साधना का लक्ष्य है। (२) अन्य क्रियात्मक प्रकार योग-साधना में एकाधिक प्रकारों से कुण्डलिनी-प्रबोधन के विषय में कहा गया है। उनमें से एक अनुभूत-प्रयोग इस प्रकार है सर्वप्रथम शुद्ध आसन पर स्वयं शुद्ध होकर बैठे तथा गुरु-स्मरणपूर्वक 'गुरुस्तोत्र' का पाठ करके लिङ्गमुद्रा से अकुलस्थ गुरु को भावना सहित प्रणाम करे। इसके बाद छोटिका-मुद्रा द्वारा दिग्बन्धन भूतोत्सारण भावना द्वारा तालत्रय करते हुए भावना करे कि 'इस मण्डल में बाह्य बाधाएँ न हों। HALAWARINowwwfMARATHONENTARNAMEN D MENSURENA कुण्डलिनी योग : एक चिन्तन : डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी | ३२५ -19 - IN

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