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साध्वी रत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
( स्वरूप का अध्ययन करना स्वाध्याय है -अध्ययन में वाचना, जिज्ञासा, पृच्छना, परिवर्तना, चिन्तन-मनन- कथन समाहित है ।)
धर्म-ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ हैं(१) एकत्वानुप्रेक्षा,
(३) अशरणानुप्रेक्षा,
(२) अनित्यानुप्रेक्षा, (४) संसारानुप्रेक्षा ।
एकत्वानुप्रेक्षा - एकत्व का अर्थ एकता व अकेलापन है । साधक ध्यान की गहराई में अपने को संसार और परिवार से ही नहीं अपितु अपने को अपने तन से भी भिन्न 'अकेला' पाता है । वह संयोग में वियोग का अनुभव कर अकेलेपन का साक्षात्कार करता है साथ ही ध्यान-साधक ध्यान में आत्म-साक्षात्कार करता है तो उसे अविनाशीपन, ध ुवत्व का बोध होता है । वह अनुभव करता है कि उसकी अविनाशी (सिद्ध) से एकता है । अविनाशी और वह एक ही जाति के हैं, केवल दोनों में गुणों की अभिव्यक्ति की भिन्नता है। कहा भी है 'सिद्धां जैसा जीव है जीव सोई सिद्ध होय' यह भिन्नता मिटने पर वह सदैव के लिए अविनाशी अवस्था को प्राप्त हो सकता है। साथ ही वह आत्म-निरीक्षण से यह भी देखता है कि अन्तर्लोक में शरीर, मन और संवेदनाओं में निरन्तर परिवर्तन ( पर्याय-प्रवाह ) चल रहा है अतः ये सब विनाशी जाति के हैं । इन सबमें जातीय एकता है । अविनाशी जाति का होने से मेरी इन विनाशी जाति वाले पदार्थों से भी भिन्नता है, ये पर हैं । इस प्रकार पर से अपनी भिन्नता का अनुभव कर अपने स्वरूप में स्थित हो अविनाशी से एकता । एकरूपता) का अनुभवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है, यही आचारांग सूत्र में कथित ध्रुवचारी बनने की साधना है ।
अनित्यानुप्रेक्षा - साधक ध्यान में अन्तर्लोक में प्रवेश कर आत्म-निरीक्षण करता है तो अनुभव करता है कि जैसे बाह्य लोक में सब पदार्थ बदल रहे हैं उसी प्रकार भीतर के लोक में भी शरीर का अणुऔर संवेदना सबके सब प्रति पल बड़ी तीव्र गति से बदल रहे हैं । सर्वत्र उत्पाद व्यय का प्रवाह सतत चल रहा है । देखते ही देखते संवेदना उत्पन्न होती है और नष्ट होती है। संसार में दृश्यमान व प्रतीयमान कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो नित्य हो, सब अनित्य हैं, विनाशी हैं । सुख, दुख, परिस्थिति, अवस्था, तन, मन, धन, स्वजन, परिजन, मित्र, भूमि, भवन, सब अनित्य हैं । राजा, राणा, सम्राट, चक्रवर्ती, शहंशाह, सेठ साहूकार, विद्वान, धनवान, सत्तावान, शक्तिमान, सब अंत में मरकर मिट्टी में मिल जाते हैं । पानी के पताशा जैसा तन का तमाशा है । संसार के सब पदार्थ क्षण-क्षण क्षीण होकर नाश हो रहे हैं, क्षणिक हैं । हाथी के कान के समान संध्या के सूर्य के समान, ओस की बूँद के समान, पीपल के पात के समान, अस्थिर हैं । अनित्य का मिलना भी न मिलने के समान है अर्थात् मिलना न मिलना दोनों एक समान हैं, अतः अनित्य पदार्थों को चाहना, उनका भोग भोगना सब व्यर्थ है । ऐसी प्रज्ञा से प्रत्यक्ष अनुभव कर समता में स्थित रहना, उनके प्रति राग-द्वेषात्मक प्रतिक्रिया न करना अनित्यानुप्रेक्षा है।
अशरणानुप्रेक्षा- ध्यान में साधक अन्तर्जगत में शरीर व संवेदनाओं की अनित्यता का प्रत्यक्ष अनुभव करता है । इस अनुभूति से वह जानता है कि अनित्य पदार्थों का शरण लेना आश्रय लेना, उनके सहारे से जीवन मानना, भूल है। कारण कि जो पदार्थ स्वयं ही अनित्य हैं उनका सहारा या शरण कैसे नित्य हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता । अतः अनित्य पदार्थ का सहारा, आश्रय, शरण लेना धोखा खाना है । ध्यानमग्न साधक देखता - अनुभव करता है कि तन ही प्रति क्षण बदल रहा है अतः यह आश्रय शरण लेने योग्य नहीं है, शरणभूत नहीं है । जब तन ही शरणभूत नहीं है, आश्रय योग्य नहीं है तब धन,
धर्म - ध्यान : एक अनुचिन्तन : कन्हैयालाल लोढ़ा ! ३७३