Book Title: Sadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Author(s): Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 705
________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिजन्दन ग्रन्थ H iiiiii ... ..... . ...... RI RH - 4 अभाव क्लेशों का प्रसुप्तत्व है। विपरीत प्रकृति के कर्म के उदय से क्लेशों की प्रकृति का दब जाना क्लेशों का विच्छिन्नत्व है । कर्मों के उदय से क्लेशों का प्रकट हो जाना उदारत्व है । जीव को अजीव समझना, अजीव को जीव समझना, धर्म को अधर्म समझना, अधर्म को धर्म समझना, साधु को असाध व असाध को साध समझना, मोक्ष के मार्ग को संसार का मार्ग व संसार के मार्ग को मोक्ष का मार्ग इत्यादि दस प्रकार का मिथ्यात्व ही अविद्या है। दृश्य पदार्थों में दृक चेतना का आरोप अस्मिता में अन्तर्भूत है। बौद्धों के अनुसार दृश्य और दृक् का ऐक्य मानने पर दृष्टि-सृष्टिवाद का दोष उत्पन्न होगा। अतः दृश्य में दृक् के आरोप को अस्मिता क्लेश कहा है । अहंकार और ममकार के कारणरूप में राग और द्वेष क्लेशों का अन्तर्भाव किया है । जैन दर्शनानुसार राग और द्वेष कषाय के ही भेद हैं। अभिनिवेश का स्वरूप भय संज्ञात्मक है। अभिनिवेश क्लेश का तात्पर्य भय संज्ञा से है। अन्य आहार आदि संज्ञा विषयक अभिनिवेश भी विद्वानों में देखा जाता है। अतः यशोविजय ने भय संज्ञात्मक अभिनिवेश को संज्ञान्तरोपलक्षण माना है । मोहाभिव्यक्त चैतन्य को संज्ञा कहते हैं। सभी क्लेश मोहबीजात्मक हैं। अतः मोहक्षय से क्लेशक्षय होता है और क्लेशक्षय से कैवल्य सिद्धि होती है । इसी कारण यशोविजय ने क्लिष्टचित्तवृत्तिनिरोध को योग कहा है। यशोविजय ने सम्प्रज्ञात व असम्प्रज्ञात भेद वाले योग को हरिभद्रसूरिविरचित योगबिन्दु में वणित योग के पाँच भेदों (अध्यात्मयोग, भावनायोग, ध्यानयोग, समतायोग, वृत्तिसंक्षययोग) में पञ्चम भेद वृत्तिक्षय में अन्तर्भूत माना है। "वृत्तिक्षयोह्यात्मनः कर्मसयोग योग्यतापगमः" । आत्मा की स्थूल-सूक्ष्म चेष्टाएँ वृत्तियाँ हैं, उनका मूल हेतु कर्मसंयोग की योग्यता है, और वह कर्मसंयोगयोग्यता कर्म प्रकृति के आत्यन्तिक वन्धव्यवच्छेदरूपी कारण से निवृत्त होती है । शुक्लध्यान के चार भेदों17 में पृथक्त्ववितर्क सविचार शुक्लध्यान तथा एकत्ववितर्कअविचार शुक्लध्यान इन दो भेदों में योगसूत्र वणित सम्प्रज्ञात समाधि की तुलना यशोविजय ने की है, तथा योगबिन्दु को उल्लिखित किया है 'समाधिरेषएवान्य: सम्प्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्याप्रकर्षरूपेण, वृत्यर्थज्ञानस्तथा ।।" (योगविन्दु ४/९) वृत्त्यर्थों के सम्यग्ज्ञान से ही यह सम्प्रज्ञात समाधि कहलाती है। असम्प्रज्ञात समाधि की जैन दृष्टि से व्याख्या करते हुए यशोविजय ने केवलज्ञान प्राप्ति को असम्प्रज्ञात समाधि कहा है। गुणस्थान के क्रम में क्षपक श्रेणि गूणस्थान की समाप्ति होने पर केवलज्ञान प्राप्त होता है। ग्राह्य विषय और ग्रहण अस्मिता आदि के आकार से आकारित होने वाले अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा मतिज्ञान के इस क्रम से भाव मनोवृत्तियों का अनुभव नहीं होता। भावमन से मतिज्ञान का अभाव हो जाता है, किन्तु द्रव्य मन से संज्ञा अथवा मतिज्ञान का सद्भाव रहता है, यह अवस्था योग RSS AFRAM -47 TRAS THANK K TIMa ३६६ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग H timeTES ORSHAN. A nand www.jainelibPET: arePTESCOTICE www.r

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