Book Title: Sadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Author(s): Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 709
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ABHIROID स्वभाव में स्थित होना धर्म है। परभाव या विभाव को प्राप्त होना अधर्म है, पाप है। स्वभाव वह है जो सभी को अभीष्ट हो । सभी सचेतन प्राणियों को अमरत्व-अविनाशीपन पसंद है, इष्ट है; किसी भी प्राणी को मृत्यु या विनाश पसंद नहीं है, इष्ट नहीं है। अतः इससे यह सिद्ध होता है कि चेतन का स्वभाव है अविनाशीपन; और विनाशीपन परभाव या विभाव है । अविनाशी के ही पर्यायवाची हैं अमरत्व, ध्र वता, नित्यता और विनाशीपन के पर्यायवाची हैं मृत्यु, व्यय, अनित्यता। व्यय उसी का होता है जिसकी उत्पत्ति होती है । अतः व्यय का सम्बन्ध उत्पाद से जुड़ा हुआ है। इससे यह फलित हुआ कि उत्पाद-व्यय परभाव हैं, विभाव हैं और उत्पाद-व्यय का ज्ञाता ध्रुव स्वभाव है। स्वभावरूप धर्म को जानने के लिए स्वभाव और विभाव दोनों का ज्ञान होना आवश्यक है। स्वभाव है ध्र वत्व और विभाव है उत्पाद-व्यय । अतः उत्पाद-व्यय, ध्र वत्व के ज्ञान में ही धर्म का सम्पूर्ण ज्ञान समाहित है। उत्पाद-व्ययरूप परभाव या विभाव का त्याग कर ध्र वत्व को प्राप्त होना ही स्वभाव या धर्म है। स्वभाव को प्राप्त होना साध्यरूप धर्म है। साध्यरूप धर्म की प्राप्ति के लिए उत्पाद-व्यय युक्त वस्तुओं व सुख का त्याग, 'साधना' रूप धर्म है। यह साधनारूप धर्म कारण में कार्य का उपचार कर कहा है । धर्म को उपलब्ध करने की साधना ही धर्म-क्रिया या धर्मध्यान है। धर्मध्यान के चार प्रकार हैं(१) आज्ञाविचय, (२) अपायविचय, (३) विपाकविचय और (४) संस्थानविचय। आज्ञाविचय-"सच्चाए आणाए" (आवारांग सूत्र) सत्य ही आज्ञा है। सत्य वह है जिसकी सत्ता सदा बनी रहे, जो शाश्वत है, ध्र व है । अतः शाश्वत व ध्र वत्व में विचरण करना आज्ञाविचय है । विचय का अर्थ है अन्तर्लोक में अनुभूतिपूर्वक विचरण व विचार करना। अन्तर्मुखी होकर अन्तर्लोक में आत्म-निरीक्षण करने पर स्थूल औदारिक शरीर में सर्वत्र उदयमान संवेदनाओं का अनुभव होता है साथ ही यह भी अनुभव होता है कि इन संवेदनाओं में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है, उत्पाद-व्यय हो रहा है, वह मेरा रूप नहीं है, मैं नहीं हूँ; मैं इनसे भिन्न, इनका द्रष्टा, अव्यय, अनुत्पन्न, ध्र व, शाश्वत हूँ। मुझे इन संवेदनाओं के प्रति आत्मभाव नहीं रखना है । वीतराग की आज्ञा वीतरागरूप है। वीतरागरूप है राग-द्वेष रहित होना । अतः संवेदनाओं के प्रति राग-द्वेष नहीं करना, समभाव (सामायिक) में रहना वीतराग मार्ग का अनुसरण करना है । वीतरागमार्ग का अनुसरण करना आज्ञाविचय है। संवेदनाओं के प्रति अनित्यता का बोध जगाये रहना अनित्यानुप्रेक्षा है। अनुकूल सुखद संवेदनाओं का आश्रय न लेना तथा अशरणता का बोध जगाये रखना अशरणानुप्रेक्षा है। प्रतिकूल दुखद संवेदनाओं के प्रति तटस्थता का बोध जगाये रहना संसारानुप्रेक्षा है तथा मेरी अविनाशी, ध्र व तत्व से एकता है हय बोध जगाये रहना एकत्वानुप्रेक्षा है। ये चारों अनुप्रेक्षाएँ (भावनाएँ) आज्ञाविचय को पुष्ट करती हैं। इनका विशेष विवेचन आगे किया जायेगा तथा ये चारों अनुप्रेक्षाएँ आगे वर्णित अपायविचय, विपाकवचय एवं संस्थानविचय को भी पुष्ट करती हैं। ३७० | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग www.jaine

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