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(१) अव्यथा-इसे 'अवध' भी कहते हैं । अवध का अर्थ है-अचलता । क्षोभ का अभाव ही 'अन्यथा' है।
(२) असंमोह–अनुकूल प्रतिकूल उपद्रव या परीषह आने पर विचलित नहीं होना। या सूक्ष्मपदार्थ-विषयक मूढ़ता का अभाव ।
(३) विवेक-सद्सद्विवेक बुद्धि से भेदविज्ञान (शरीर और आत्मा का ज्ञान) होना । (४) व्युत्सर्ग--'त्याग' शरीर और उपधि में अनासक्त भाव । शुक्लध्यान के चार आलम्बन- आगम में चार प्रकार के आलम्बन का कथन है76..(१) क्षमा, (२) मुक्ति (निर्लोभता) (३) आर्जव (सरलता) और (४) भार्दव (मृदुता)। शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षा--आगमकथित चार अनुप्रेक्षा इस प्रकार हैं
(१) अनन्ततितानुप्रेक्षा-संसार (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव) परम्परा का चिन्तन करना । भव भ्रमण का मूल कारण मिथ्यात्व और कषाय है । सब कर्मों में प्रधान मोहनीय कर्म है। यह कर्मों का राजा है। इसके कारण ही संसार में जीव अनन्तानन्त भव तक भ्रमण करता रहता है। इसका चिन्तन करना ही 'अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा' है।
(२) विपरिणामानुप्रेक्षा-संसार की प्रत्येक वस्तु परिणनशील है। पुद्गल का स्वभाव परिणमनशील है । अतः वस्तुओं के विविध परिणामों का चिन्तन करना ही 'विपरिणामानुप्रेक्षा' है।
(३) अशुभानुप्रेक्षा-संसार में जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, आधि, व्याधि, उपाधि, संयोग, वियोग आदि का चक्र अनादिकाल से चल रहा है । निगोदावस्था में अनन्तानन्त काल व्यतीत किया। चारों गति में भटका। तिर्यंच और मनुष्य भव में भी अशुचि स्थानों में जन्मा-मरा । इस प्रकार पदार्थों की की अशुभता का चिन्तन करना ही 'अशुभानुप्रेक्षा' है।
(४) अपायानुप्रेक्षा---कर्मबन्ध के पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। ये ही संसारवृद्धिकारक हैं। और भी आर्त्त-रौद्र-ध्यान, तीन शल्य, तीन गारव, अज्ञानता, राग, द्वेष और मोह ये सब अपाय हैं । भववर्द्धक हैं । इन दोषों का चिन्तन करना ही 'अपायानुप्रेक्षा' है ।
आगमिक टोकानुसार ध्यान के भेद आगमिक ग्रन्थों पर नियुक्ति, भाष्य, चूणि और टीकाएँ हैं । नियुक्तियाँ अनेक हैं। उनमे आवश्यकनिर्यक्त प्राचीनतम है। उसके 'कायोत्सर्ग' प्रकरण में ध्यान का वर्णन है। वहाँ शुभ और अशुभ ऐसे ध्यान के दो भेद किए हैं ।78 आर्त्त-रौद्रध्यान अशुभ हैं और धर्म-शुक्लध्यान शुभ हैं । भाष्य, चूणि और टीका में 'प्रशस्त' और 'अप्रशस्त' 'ऐसे दो भेद मिलते हैं ।
आगमेतर साहित्यानुसार ध्यान के भेद निश्चयनय की दृष्टि से ध्यान के कभी भेद हो नहीं सकते। व्यवहारनय की दृष्टि से ही भेदप्रभेदों का विचार किया गया है। इसलिए १, २, ३, ४,१०, ८० और ४४२३६८ भेद छद्मस्थ ध्यान की दृष्टि से किये गये हैं
'भारतीय-वाङमय में ध्यानयोग : एक विश्लेषण' : डॉ. साध्वी प्रियदर्शना | ३५१
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