Book Title: Sadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Author(s): Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 692
________________ २३०४ भेदों का भवनयोग से गुणाकार करने से-६६४ २३०४-२२११८४ २३०४ भेदों का करणयोग से गुणाकार करने से-६६ x २३०४ = २२११८४ २२११८४+२२११८४ -४४२३६८ भेद ध्यान के होते हैं। ___ ध्यान का मूल्यांकन हमारे सामने दो प्रकार का जगत् है, जैसे-पदार्थ जगत्-आत्म जगत्, स्थूल जगत्-सूक्ष्म जगत्, बाह्यजगत्-अन्तर्जगत्, निमित्तों का जगत्-उपादान का जगन् । पदार्थ-बाह्य-स्थूल जगत से हम परिचित हैं किन्तु अन्तर्-आत्म-सूक्ष्म जगत् से अनभिज्ञ (अपरिचित) हैं। उसके लिए जागृत होना होगा। क्योंकि ध्यान का लक्ष्य है जीवन का परिवर्तन । मिथ्यादृष्टि से हटकर सम्यग्दृष्टि में आना ही ध्यान की प्रक्रिया है । ध्यान से आध्यात्मिक परम सुख की प्राप्ति होती ही है साथ ही साथ शारीरिक और मानसिक विकास भी उत्तरोत्तर होता रहता है । काया की स्थिरता, मन की निर्मलता, वचन की मधुरता, हृदय की पवित्रता ध्यान से ही प्राप्त होती है। दशा को बदलने के लिए दिशा को बदलना होगा। दिशा का परिवर्तन आचार-विचार-उच्चार की निर्मलता से होता है। चित्तशुद्धि से कर्म-मलादि का शोधन होता है । जैसेमैले-कुचैले वस्त्र को पानी से, लोहे को अग्नि से, कीचड़ को सूर्य किरणों से शोधन किया जाता है वैसे ही ध्यान रूपी पानी, अग्नि, सूर्य से कर्ममल का परिशीलन (छानन) किया जाता है ।80 अतः ध्यानाग्नि से ही कर्म ईंधन को जलाया जा सकता है। ध्यान जीवन परिवर्तन की परम औषधि है। जन्म मरण का रोग भयंकर है। द्रव्यरोग की दवा डॉक्टर के पास है, भावरोग की नहीं । वह तो ध्यानियों के ही पास है। देखिए सनत्कुमार चक्रवर्ती, चिलाति चोर आदि भव्यात्माओं ने ध्यान बल से भावरोग को नाश कर दिया। ऐसे साधक आत्मा एक दो तीन नहीं बल्कि अनेकों हैं। उन्होंने आहारशुद्धि, दैनिक चर्या शुद्धि, विचारशुद्धि, व्यवहारशुद्धि, चित्तशुद्धि तथा योगशुद्धि (मन वचन काय व्यापार) से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक बल प्राप्त किया। वह बल अनेक प्रकार की लब्धियों को प्राप्त कराता है। पर स्मरण रहे महावीर की साधना में चमत्कार को महत्व नहीं है किन्तु सदाचार, आत्मशुद्धि और रत्नत्रय साधना को ही है। ध्यान प्रक्रिया तब ही सिद्ध होगी जबकि रत्नत्रय साधना का उत्तरोत्तर विकास होगा। जैन पारिभाषिक शब्दावली में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहा है । रत्नत्रय की साधना आध्यात्मिक साधना है । आध्यात्मिक साधना का स्वर रहा है-मन-वचनकाय की प्रवृत्ति को जानो, देखो और अनुभव करो। ज्ञान और क्रिया के सुयोग से मोक्ष मिलता है । इन दोनों के बिना ध्यान साधा नहीं जाता। ध्यान से कषायों का शमन होता है और कषायों का सर्वथा शमन (नाश) ही मोक्ष है । ध्यान कराया नहीं जाता, वह अनुभूति का विषय है। महावीर की समस्त साधना विधि का परिचय 'ध्यान' शब्द से न होकर 'समता' से होता है। समत्व योग की साधना ही ध्यान की साधना है। ध्यान का आधार समभाव है और समभाव का आधार ध्यान है । प्रशस्त ध्यान से केवल साम्य ही स्थिर नहीं होता, अपितु कर्ममल से मलिन जीव की शुद्धि होती है । अतः ध्यान किया नहीं जाता वह फलित होता है। हमारे शारीरिक मानसिक सन्तुलन दशा का परिणाम ही ध्यानावस्था है। वर्तमान कालीन परिस्थिति में शान्ति पाना हो तो एकमात्र परम औषधि है 'ध्यान' । ध्यान की प्रक्रिया से आत्मिक शान्ति मिलती है।88 'भारतीय-वाङमय में ध्यानयोग : एक विश्लेषण' : डॉ० साध्वी प्रियदर्शना | ३५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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