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(३) योग विचार - काययोग को छोड़कर मनोयोग का आलम्बन लेना, मनोयोग को छोड़कर फिर काययोग का आलम्बन लेना योग संक्रमण है ।
'संक्रमण' श्रम दूर करने के लिए और नये ज्ञान-पर्यायों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है । Cafe ध्यान, मानसिक ध्यान और वाचिक ध्यान पर्यायों के सूक्ष्म चिन्तन से लगी थकावट को दूर करने के लिए द्रव्य का आलम्बन लेते हैं । नई उपलब्धि के लिए ऐसा किया जाता है। जिससे कर्मक्षय शीघ्र होते हैं ।
योगदर्शन के अनुसार 'वितर्क' का अर्थ स्थूल भूतों का साक्षात्कार और 'विचार' का अर्थ सूक्ष्म भूतों तथा तन्मात्राओं का साक्षात्कार है । 72
बौद्ध दर्शन के अनुसार 'वितर्क' का अर्थ आलम्बन में स्थिर होना और 'विचार-विकल्प' का अर्थ उस आलम्बन में एकरस हो जाता है । 23
इन तीनों परम्पराओं में शब्द साम्य होने पर भी उनके संदर्भ पृथक्-पृथक् हैं ।
आचार्य अकलंक ने ध्यान की प्रक्रिया का सुन्दर वर्णन किया है । उन्होंने कहा है 24 - उत्तम संहनन होने पर भी परीषहों को सहने की क्षमता का आत्मविश्वास हुए बिना ध्यान-साधना नहीं हो सकती । परीषदों की बाधा सहकर ही ध्यान प्रारम्भ किया जा सकता है । पर्वत, गुफा, वृक्ष की खोह, नदी तट, पुल, श्मशान, जीर्णउद्यान और शून्यागार आदि किसी स्थान में व्याघ्र, सिंह, मृग, पशु पक्षी, मनुष्य आदि के अगोचर, निर्जन्तु, समशीतोष्ण, अतिवायु रहित, वर्षा, आतप आदि से रहित तात्पर्य यह कि सम बाह्य आभ्यन्तर बाधाओं से शून्य और पवित्र भूमि पर सुखर्वक पल्यङ्कासन में बैठना चाहिए । उस समय शरीर को सम, ऋजु और निश्चल रखना चाहिए। बाएँ हाथ पर दाहिना हाथ रखकर, न खुले हुए और न बन्द, किन्तु कुछ खुले हुए दांतों को रखकर, कुछ ऊपर किये हुए सीधी कमर और सीधी ( गम्भीर ) गर्दन किए हुए प्रसन्न मुख और अनिमिष स्थिर सौम्यदृष्टि होकर निद्रा, आलस्य, कामराग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदि को छोड़कर मन्द मन्द श्वासोच्छ्वास लेने वाला साधु ध्यान की तैयारी करता है । वह नाभि के ऊपर हृदय, मस्तक, कपाल या और कहीं अभ्यासानुसार मन को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है । इस तरह एकाग्रचित्त होकर राग, द्वेष, मोह का उपशम कर कुशलता से शरीर क्रियाओं का निग्रह कर मन्द श्वासोच्छ्वास लेता हुआ निश्चित लक्ष्य और क्षमाशील हो बाह्य-आभ्यन्तर द्रव्य पर्यायों का ध्यान करता हुआ वितर्क की सामर्थ्य से युक्त हो अर्थ और व्यञ्जन तथा मन, वचन, काय की पृथक्-पृथक् संक्रान्ति करता है । फिर शक्ति की कमी होने से योग से योगान्तर और व्यञ्जन से व्यञ्जनान्तर में संक्रमण होता है ।"
शुक्लध्यान का चतुर्थ चरण (भेद) योगों की क्रिया से रहित होने से केवलज्ञानी अयोगी केवली बन जाते हैं । चतुर्थध्यान को 'व्यवच्छिन्न-क्रिया - अप्रतिपाती' या 'व्युच्छिन्न- व्युपरत क्रिया- अप्रतिपाती' कहते हैं । अप्रतिपाती का अर्थ है-अटल स्वभाव वाली अथवा शाश्वत काल तक अयोग अवस्था कायम रहे । तदनन्तर शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर चतुर्थ 'समुच्छिन्न-क्रिया अनिवृत्ति' शुक्लध्यान का ध्याता होता है। इसमें साधक की अवस्था मेरुवत् होती है । यहाँ 'ध्यान' का अर्थ एकान्त रूप से जीव के चिन्ता का निरोध -- परिस्पन्द का अभाव है । अन्तिम दो ध्यान संवर निर्जरा का कारण है ।
शुक्लध्यान का लक्षण - आगम में शुक्लध्यान के चार लक्षण बताये हैं 75
३५० | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग
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