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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
सम्यक्चारित्र ।। धर्म का तीसरा अर्थ है--वस्तु का स्वभाव ।66 इन अथवा इन जैसे अन्य अर्थों में प्रयुक्त धर्म को ध्येय बनाने वाला ध्यान धर्मध्यान कहलाता है ।
___ध्येय अनन्त हो सकते हैं । द्रव्य और उनके पर्याय अनन्त हैं । जितने द्रव्य और पर्याय हैं, उतने ही ध्येय हैं। उन अनन्त ध्येयों का उक्त चार प्रकारों में समावेश किया गया है ।
धर्मध्यान के अधिकारी-अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयति और अप्रमत्तसंयति- इन सबको धर्मध्यान करने की योग्यता प्राप्त हो सकती है।
शुक्लध्यान के भेद, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षाएं चेतना की स्वाभाविक (उपधि-रहित) परिणति को ‘शुक्लध्यान' कहा जाता है। उसके चार प्रकार हैं:7....
(१) पृथपरक्ष-वितर्क-विचार (सविचारी)-- इसमें तीन शब्द आये हुए हैं जिनका अर्थ है-- पृथक्त्व' भेद, 'वितर्क' - विशेष तर्कणा (द्वादशांगश्रुत), और 'विचार' - 'वि'- विशेषरूप से, चार' चलना यानी अर्थ-व्यंजन (शब्द) और योग (मन-वचन-काय) में संक्रान्ति (बदलना) करना ही 'विचार' है।
जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियों नयों से चिन्तन किया जाता है और पुर्व श्रुत का आलम्बन लिया जाता है तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में, एक द्रव्य से दसरे द्रव्य पर एक पर्याय से दूसरे पर्याय में, एवं मन वचन और काया में से एक दूसरे में संक्रमण किया जाता है, शुक्लध्यान की उस स्थिति को 'पृथक्त्व-वितर्क-सविचार' कहा जाता है।
(२) एकत्व-वितर्क-अविचार (अविचारी)- इसमें चित्त की स्थिति वायुरहित दीपक की लौ को भांति होती है। जब एक द्रव्य या किसी एक पर्याय का अभेद-दृष्टि से चिन्तन किया जात का आलम्बन लिया जाता है तथा जहाँ शब्द, अर्थ एवं मन, वचन और काया में से एक दुसरे में संक्रमण किया जाता है, तीन योग में से कोई भी एक ही योग ध्येय रूप में होता है। एक ही ध्येय होने के कारण अर्थ, व्यंजन और योग में एकात्मकता रहती है। द्रव्य-गण-पर्याय में मेरुवत निश्चल अवस्थित चित्त बाले वाले चौदह, दस और नौ पूर्वधारी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव ही अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्यान करते हैं ! वे असंख्यात-असंख्यात गुणश्रेणिक्रम से कर्मस्कन्धों का घात करते हुए ज्ञानावरण-दर्शनावरण और अन्तगय इन तीन कर्मों को केवलज्ञान के प्राप्त होने के बाद
ही युगपद् नाश करते हैं। तव जीव शुद्ध निर्मल क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। शूवलध्यान की इस स्थिति को एकत्व-वितक-अविचार' कहा जाता है।
(३. सूक्ष्म क्रिय-अनिवृत्ति (प्रतिपाती, अनियट्टी)---द्वितीय शुबलध्यानावस्था में साधक आत्मा का केवलज्ञान हो जाने से वह सभस्त वस्तुओं के द्रव्य और पर्यायों को युगपद् जानने लग जाता है । घातिकर्मी को क्षय कर देता है और अघातिकर्म शेष रहते हैं। अघातिकर्मो को क्षय करने के लिए सभी केवली को 'आउज्जीकरण' की प्रक्रिया करनी पड़ती है। बाद में 'केवली समुद्घात' की प्रक्रिया होती है। केवली समुद्घात सवको नहीं होता । जिनका आयु कर्म कम हो और शेष तीन कर्मों के दलिक अधिक हों तो आयुसम करने के लिए उनके 'केवली-समुद्घात' होता है। परन्तु जिनके वेदनादि तीन कर्म आयु जितने ही स्थिति वाले हों तो समुद्घात नहीं होता। आयु का कालमान अन्तर्मुहर्त णेष रहने पर शीघ्र ही 'मूक्ष्म
३४८ सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग
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