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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
क्रिय-प्रतिपाती' नामक तीसग शुक्लध्यान प्रारम्भ किया जाता है। यहीं से समुद्घात की क्रिया प्रारम्भ होती है। ध्यानस्थ केवली भगवान् ध्यान के बल से अपने आत्म प्रदेशों को शरीर के बाहर निकालते हैं। केवली समुद्घात में आठ समय लगते हैं। प्रथम समय में दण्ड, द्वितीय समय में कपाट, तीसरे समय में मथानी और चौथे समय में आत्म प्रदेशों को लोकव्यापी करते हैं। पाँचवे समय में लोक में फैले हुए कर्म वाले आत्म प्रदेशों का उपसंहार (संहरण कर सिकोड़ते हैं) होता है । छठे समय में पूर्व-पश्चिम के
गों का संहार करके मथानी से पूनः सातवें समय में कपाट का आकार करते हैं और आठवें समय में दण्डाकार को समेटकर पूर्ववत् अपने मूल शरीर में स्थित हो जाते हैं। जिन्होंने केवली समुद्घात की प्रक्रिया नहीं की वे 'योगनिरोध' की प्रक्रिया प्रारम्भ करते हैं। योग सहित जीवों की कदापि मुक्ति हो नहीं सकती। अतः 'योगनिरोध' की प्रक्रिया अवश्य करणीय होती है। योगों (मन-वचन-काय) के विनाश को ही 'योगनिरोध' कहते हैं। याद रहे कि केवली समुद्घात करने वाले भी योगनिरोध की प्रक्रिया करते हैं। केवली भगवान् केवली समुद्घात के अन्तर्महर्तकाल व्यतीत हो जाने के बाद तीनों योगों में से सर्वप्रथम बादरकाययोग से बादर मनोयोग को रोकते हैं, बाद में वादरकाययोग से बादरवचनयोग, को पुनः अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् वादरकाययोग से वादरउच्छ्वास-निःश्वास को रोकते हैं। इस प्रकार निरोध करते-करते समस्त वादरकाययोग का निरोध हो जाता है, तब सक्ष्मकाययोग द्वारा सम्म मनोयोग, सूक्ष्मकाययोग द्वारा सूक्ष्मवचनयोग का निरोध करते हैं । तदनन्तर अन्तर्महुर्त के पश्चात् सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्मउच्छ्वास-निःश्वास का निरोध करते हैं। पुनः अन्तर्मुहुर्त काल व्यतीत होने पर सूक्ष्मकाययोग द्वारा सूक्ष्मकाययोग का निरोध करते हैं। इसमें इन करणों को भी करते हैं, जैसे स्पर्धक और कृष्टिकरण । कृष्टिगत योग वाला होने पर वह 'सूक्ष्मक्रिय-अनिवृत्ति' ध्यान का ध्याता होता है । 'योगनिरोध' की यह प्रक्रिया है ।
(४) समच्छिन्न-क्रिय-अप्रतिपाती--तीसरे ध्यान के बाद के बाद चतुर्थ ध्यान प्रारम्भ होता है। इसमें योगों (मन-वचन-काय का व्यापार) का पूर्णतः उच्छेद हो जाता है। सूक्ष्म क्रिया का भी निरोध हो जाता है, उस अवस्था को समुच्छिन्न-क्रिय-अप्रतिपाती' कहा जाता है । इसका पतन नहीं होता, इसलिए यह अप्रतिपाती है।
उपाध्याय यशोविजय जी ने हरिभद्र सूरिकृत योग बिन्दु' के आधार से शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों की तुलना संप्रज्ञात समाधि से की है ।" संप्रज्ञात समाधि के चार प्रकार हैं--(१) वितानुगत, (२) विचारानुगत, (३) आनंदानुगत और (४) अस्मितानुगत । उन्होंने शुक्लध्यान के शेष दो भेदों की तुलना असंप्रज्ञात-समाधि से की है ।
प्रथम दो भेदों में आये हुए 'वितर्क' और 'विचार' शब्द जैन, योगदर्शन और बौद्ध इन तीनों की ध्यान-पद्धतियों में समान रूप से मिलते हैं। जैन साहित्यानुसार वितर्क का अर्थ श्रुतज्ञान और विचार का अर्थ संक्रमण है । वह तीन प्रकार का माना जाता है
(१) अर्थ विचार--जो द्रव्य अभी ध्येय बना हुआ है, उसे छोड़ पर्याय को ध्येय बना लेना। पर्याय को छोड़ पुनः (फिर) द्रव्य को ध्येय बना लेना अर्थ का संक्रमण है।
(२) व्यञ्जन विचार-वर्तमान में जो श्रुतवचन ध्येय बना हुआ है, उसे छोड़ दूसरे श्रुतवचन को ध्येय बना लेना । कुछ समय के बाद उसे छोड़ किसी अन्य श्रुतवचन को ध्येय बना लेना व्यञ्जन का संक्रमण है।
'भारतीय-वाङमय में ध्यानयोग : एक विश्लेषण' : डॉ० साध्वी प्रियदर्शना | ३४६
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