Book Title: Sadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Author(s): Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 666
________________ साधनारत्न पुचवता आभनन्दन ठान्था NUMAMTHIMONIANImmunwanemRomawuraMMEDIOHORTowarweswuntiwomemamHINAMARUITMENHALINIC ORIANDUTOMATARATHI ना __ अर्थात् गुरुकृपा से जब निद्रिता कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाती है तव मूलाधारादि षट्चक्रों की ग्रन्थियों का भेदन भी हो जाता है। इसलिये सर्वविध प्रयत्न से ब्रह्मरन्ध्र के मुख से उस निद्रिता परमेश्वरी शक्ति कुण्डलिनी को प्रबोधित करने के लिये प्राणायामादि क्रिया तथा मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिये। (३) प्राण-साधना से कुण्डलिनी-प्रबोधन प्राण भी कुण्डलिनी का ही अपर नाम है। इसी प्राणवायु को शून्य नाड़ी के अन्दर से साधना एवं क्रिया द्वारा उठाकर सहस्रार तक पहुँचाया जाता है। वहां पहुंचने पर साधक शरीर और मन से पृथक हो जाता है तब आत्मा अपने मुक्त स्वभाव की उपलब्धि करता है। योग-विज्ञान के अनुसार आत्मा का परमात्मा से, अपान का प्राण से, स्वयं के रजस् से रेतस् का, सूर्य से चन्द्र को मिलाना ही उसका मुख्य उद्देश्य है । प्राण ही सृष्टि का प्रथम कारण है, स्थूल और कारण शरीर का इससे सम्बन्ध है। प्राण की विभिन्न अवस्थाएँ ही शक्ति का स्वरूप हैं। प्राण का तात्पर्य यहाँ श्वास-प्रश्वास मात्र न होकर पञ्चप्राण बाह्य एवं नाग-कर्मादि-पञ्चक आभ्यन्तर की समष्टि है जोकि समस्त चेतना का मूल आधार है। इसी के बारे में "प्रश्नोपनिषद्' का कथन है कि-"तस्मिन्न त्रामति, इतरे सर्व एवोत्क्रामन्ते ।" इसी का नाम प्राण-शक्ति है । इस अनन्त चेतना शक्ति के स्रोत को जागृत करने के भी अनेक उपाय हैं जिनमें केवल कुम्भक' को सर्वोपयोगी माना है । इस साधना की प्राथमिक तैयारी के रूप में स्थूल शरीर की शुद्धि अत्यावश्यक है। अतः 'नेति, धौति, बस्ति, कुंजर, शंखप्रक्षालन और त्राटक' इन षट्कर्मों की तथा नाड़ीशुद्धि के लिये 'महामुद्रा, महाबन्ध तथा सूर्यभेद, उज्जायी, शीतली, सीत्कारी, भृगी एवं भस्त्रिका प्राणायाम करने चाहिये । केवलकुम्भक के लिये पहले कुम्भक किया जाता है जिससे नाड़ी शुद्धि होकर प्राण और अपान निकट आने लगते हैं । मणिपूर के पास स्थित अग्नि तीव्र होती है, जिसके ताप से ब्रह्मनाड़ी के अग्रभाग पर जमे हए कफादि अवरोधक मल नष्ट हो जाते हैं। सुषुम्ना का मुख खुल जाता है और कन्द से जुड़ा हुआ सुषुम्ना का निम्नतम भाग शुद्ध सुषुम्ना के मुख से जुड़ जाता है तथा प्राणशक्ति जागृत होकर सुषुम्ना में प्रविष्ट हो जाती है। तब केवलकुम्भक साधना से ग्रन्थिभेदनपूर्वक प्राण ऊपर उठते हैं। केवलकुम्भक की सिद्धि हो जाने से उत्तरोत्तर पंचभूत धारणा की सिद्धि हो जाती है तथा प्राण आज्ञाचक्र में प्रवेश करते हैं। यहाँ ध्यान की सिद्धि होती है और तदनन्तर प्राणों का ऊर्ध्वगमन होता है, यहीं योगी को कैवल्य प्राप्ति होती है । अतः प्राणों का सुषुम्ना में प्रविष्ट होकर ब्रह्मरन्ध्र द्वारा ऊपर तक पहुँचना केवलकुम्भक-सिद्धि' कहलाता है। इसी प्रकार की न्यूनाधिक क्रियाएँ-(१) ध्यानयोग, (२) मुद्रायोग, (३) आसनयोग आदि भी यौगिक कुण्डली-प्रबोधन के प्रकारों में स्वीकृत हैं। (४) मन्त्रयोग और कुण्डलिनी-प्रबोधन आध्यात्मिक संसार में प्राण-साधना को आत्मा परमात्मा से मिलाने के लिये 'मन्त्रयोग' को अत्यावश्यक माना गया है । केवल प्राणायामादि क्रियाओं में मन का नियन्त्रण कुछ कठिन होता है तथा वे कायकष्ट का कारण भी बन जाती हैं, अतः बीज-मन्त्र, मूलमन्त्र, मालामन्त्र, प्रत्येक चक्र और उनमें कुण्डलिनी योग : एक चिन्तन : डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी | ३२७ itter intownertionate www. s

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