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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ)
मन की दो अवस्थाएँ हैं" - ध्यान और चित्त । एक ही अध्यवसाय में मन को दीप शिखा की तरह स्थिर करना ध्यान है अथवा स्थिर मन की अवस्था ही ध्यान है और जो चंचल मन है वह चित्त है । मन का स्वभाव चंचल है । चंचल मन और चित्त में सूक्ष्म अन्तर है । मन पौद्गलिक है, जड़ है जबकि चित्त अपौद्गलिक है, चेतन है । मन की सूक्ष्म चिन्तनशील अवस्था ही चित्त है । चंचल चित्त मन है और स्थिर चित्त ध्यान है । चंचल चित्त की तीन अवस्थाएँ होती हैं
(१) भावना, (२) अनुप्रेक्षा और (३) चिन्ता ।
भावना का अर्थ है- ध्यान के लिए अभ्यास की क्रिया अथवा जिससे मन भावित हो ।
अनुप्रेक्षा का भावार्थ -- पीछे की ओर दृष्टि करना, जिन प्ररूपित तत्त्वों का पुनः पुनः अध्ययन एवं चिन्तन मनन करना ।
चिन्ता का फलितार्थ -- मन की अस्थिर अवस्था ।
ऐसे ही तीन प्रकार से भिन्न मन की स्थिर अवस्था "ध्यान" है ।
किसी वस्तु में उत्तम संहनन वाले को अन्तर्मुहूर्त के लिए चित्तवृत्ति का रोकना अथवा मानस ज्ञान में लीन होना ही ध्यान है । मानसिक ज्ञान का किसी एक द्रव्य में या पर्याय में स्थिर होना - चिन्ता का निरोध होना ही ध्यान कहलाता है । वह संवर और निर्जरा का कारण है । एकाग्र चिन्ता निरोध को हो ध्यान कहा जाता है । नाना अर्थों पदार्थों का अवलम्बन लेने से चिन्ता परिस्पन्दवती होती हैं यानी स्थिर नहीं हो सकती है, उसे अन्य समस्त अग्रों-मुखों से हटाकर एकमुखी करने वाले का नाम ही एकाग्रचिन्ता निरोध है । 1" यही ध्यान है। ज्ञान का उपयोग अन्तर्मुहूर्त काल तक ही एक वस्तु में एकाग्र रह सकता है । इसीलिए ध्यान का कालमान अन्तर्मुहूर्त है 18
एकाग्रचित्ता निरोध का अर्थ
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एक अग्र + चिन्ता + निरोध इन चार शब्दों के संयोग से एकाग्रचिन्ता निरोध शब्द बना है, जिसका अर्थ है ".
'एक' का अर्थ - प्रधान, श्रेष्ठ ।
'अग्र' का अर्थ - आलंबन, मुख, आत्मा ।
'चिन्ता' का अर्थ - स्मृति ।
'निरोध' का अर्थ अभाव ।
उस चिन्ता का उसी एकाग्र विषय में वर्तन का नाम है ध्यान अर्थात् द्रव्य और पर्याय के मध्य में प्रधानता से जिसे विवक्षित किया जाय उसमें चिन्ता का निरोध ही सर्वज्ञ की दृष्टि से ध्यान है ।
यह तो ध्यान का सामान्य लक्षण है । विशेष लक्षण में 'एकाग्र' का जो अर्थ ग्रहण किया गया है वह व्यग्रता की विनिवृत्ति के लिए है। ज्ञान वस्तुतः व्यग्र होता है, ध्यान नहीं - " ।
यहाँ स्थूल रूप से ज्ञान और ध्यान का अन्तर स्पष्ट किया गया है। ज्ञान व्यग्र इसलिए है कि वह विविध अंगों - मुखों अथवा आलंबनों को लिए है। ध्यान व्यग्र नहीं होने का कारण यही है कि वह एक मुखी है । यों देखा जाय तो ज्ञान ध्यान से भिन्न नहीं है । वस्तुतः निश्चल अग्निशिखा के समान अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है । फलितार्थ है कि ज्ञान की उस अवस्था विशेष का नाम ही ध्यान है जिसमें
'भारतीय वाङमय में ध्यानयोग एक विश्लेषण' : डॉ० साध्वी प्रियदर्शना | ३३३
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