Book Title: Sadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Author(s): Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 677
________________ अस्तेय, ब्रह्मचर्य, करुणा, दीन-दुःखीसेवा, अनाथ, विधवाओं की सेवा, भूमि-सेवा, सदाचार, पवित्रता, मन-वचन-काय की शुद्धि, नैतिकता, प्रामाणिकता, मैत्री भावना, क्षमा को जीवन का अलंकार मानना, आत्मवत् सर्वभूतेषु की मंगल भावना, प्रेम से शत्रु को मित्र बनाना एवं शरीअत, तरीकत, मारिफत, हकीकत और गुरु-कृपा आदि रूपों में स्पष्ट होता है । ध्यानयोग का मनोवैज्ञानिक स्वरूप मानव का विकास भौतिक या शारीरिक क्षेत्र में ही न होकर मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में भी हो रहा है। मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि जिनका मानसिक तनाव अधिक बढ़ जाता है तब उस पर नियन्त्रण करने के लिए ध्यान की प्रक्रिया की जाती है । ध्यान प्रक्रिया में शरीर और मन का अग्रगण्य स्थान होता है । इसीलिये आधुनिक मनोविज्ञान भी शरीर और मन के अनुसंधान में लगा हुआ है। मनोवैज्ञानिक कैरिंगटन का कथन है कि “ध्यान-साधना एक मानसिक साधना है । मानसिक प्रक्रिया के कुछ महत्वपूर्ण रहस्य योगियों को ही ज्ञात हैं जिसे हम अभी तक जान नहीं पाये हैं । पर याद रहे कि मानसिक क्षेत्र का स्वरूप केवल मात्र 'मन' तक ही सीमित नहीं है, अपितु मन से भी अधिक सूक्ष्म 'प्रत्ययों' को बताया है। 'प्रत्ययों' का आविष्कार भारतीय मनोविज्ञान की देन है, जो आधुनिक परामनोविज्ञान का ही एक क्षेत्र है। अरविन्द ने अपनी ध्यान प्रक्रिया में “अतिमानस" की कल्पना की है जो मन की अतिसूक्ष्म स्थिति है अथवा "वह" मानसिक आरोहण का महत्त्वपूर्ण चरण है और मानसिक चेतना विकास क्रम में 'मन' का ही अधिक सहयोग है, जिसके कारण चेतना का ऊध्र्वारोहण सम्भव है। क्योकि इन्द्रियाँ सबसे हैं और इनका संयोजन एवं अनुशासन 'मन' के द्वारा ही होता है । अतः इन्द्रियों से मन सूक्ष्म है, मन से प्राण सूक्ष्म है, प्राण से बुद्धि सूक्ष्म है और बुद्धि से 'आत्मा' सूक्ष्म है । आत्मा के निज स्वरूप को जानने के लिए मन को केन्द्रित करना होता है। मन का केन्द्रीकरण इन्द्रियों के संयम से होता है। इसे इन्द्रिय-निग्रह की संज्ञा दी जाती है । इन्द्रियविजेता ही मनोविजेता हो सकता है । अतः मनोविज्ञान की शब्दावली में इन्द्रियनिग्रह को प्रवृत्तियों का उन्नयन या उदात्तीकरण कहते हैं। यह उन्नयन की प्रक्रिया कल्पना, विचार, धारणा, चिन्तन आदि के क्षेत्रों में क्रियाशील होती है। जब 'मन' किसी भी एक "वस्तु" के प्रति केन्द्रित होने की अवस्था में आता है, तब मन का केन्द्रीकरण ही वह आरम्भ बिन्दु है, जहाँ से "ध्यान" के स्वरूप पर विचार किया जाता है। मानसिक प्रक्रिया में "ध्यान" की स्थिति तक पहुँचने के लिए तीन मानसिक स्तरों या प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है । वे मानसिक स्तर इस प्रकार हैं (१) चेतन मन, (२) चेतनोन्मुख मन और (३) अचेतन मन । इन 'मन' के तीन स्तरों को फ्रायड ने नाट्यशाला के समान बताया है। जैसे नाट्यशाला की समान 'चेतन मन', नाट्यशाला की सजावट समान 'अचेतन मन' और रंगशाला में प्रवेश करने की भांति 'चेतनोन्मुख मन' है । मन को बर्फ की उपमा दी है। 8 । मनोवैज्ञानिकों ने मन की वृत्ति तीन प्रकार की बताई है, जैसे कि --(१) ज्ञानात्मक, (२) वेदनात्मक और (३) क्रियात्मक । ध्यान मन की क्रियात्मक वृत्ति है एवं वह चेतना की सबसे अधिक व्यापक क्रिया का नाम है । ध्यान मन की वह क्रिया है जिसका परिणाम ज्ञान है। प्रत्येक प्रकार के ज्ञान के लिए ध्यान की आवश्यकता है। जागृत अवस्था में किसी न किसी वस्तु पर ध्यान किया जाता है। जागृत अवस्था विभिन्न प्रकार के ज्ञान को जन्म देती है। किन्तु सुप्त अवस्था में हम ध्यानविहीन रहते हैं। ३३८ । सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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