Book Title: Sadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Author(s): Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 669
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ धर्म की साधना से ही मोक्ष-साध्य प्राप्त होता है । चार पुरुषार्थ में 'मोक्ष' पुरुषार्थ ही उपादेय है। ऋषिमुनियों, तत्त्व-चिन्तकों, विचारकों तथा दार्शनिकों ने एक स्वर से "मोक्ष" तत्त्व को स्वीकार किया है। इसीलिये सभी तत्त्वचिन्तकों एवं ज्ञानियों ने अपनी-अपनी स्वानुभूति के अनुसार भिन्न-भिन्न मोक्षहेतुओं का प्रतिपादन किया है। भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक चिन्तनधारा में मुख्य रूप से तीन तत्त्व को प्रधानता दी गई है वैदिक धर्म में कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग; बौद्ध धर्म में शील, समाधि, प्रज्ञा और जैनधर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये मोक्ष के मुख्य हेतु हैं। द्वादशांगश्रुत रूपी महासागर का सार "ध्यानयोग' है। मोक्ष का साधन ध्यान है, ध्यान सम्यग्ज्ञानादि से गर्भित है। सर्वज्ञकथित तत्त्वों को यथार्थ जानना, उनमें यथार्थ श्रद्धा होना, श्रद्धाशील साधक ही समस्त योगों को (सावध क्रिया-पापों को) नाश करने में समर्थ बनता है । जैन धर्म की समस्त साधनाएँ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप के अन्तर्गत ही निहित हैं। उनमें अहिंसा आदि अनुष्ठानों का प्रतिपादन गुलगुण और उत्तरगुणों की रक्षार्थ किया गया है । श्रमण और श्रावक की समस्त क्रियाएँ ध्यानयोग से सम्बन्धित हैं । साधना का सार कर्मक्षय है। कर्मक्षय के लिये सभी साधनाओं के मूल में चित्तशद्धि को प्रधानता दी गई है। मनशूद्धि के बिना साधना हो नहीं सकती। साधना के लिये मनशद्धि आवश्यक है और मनःशुद्धि ध्यान से प्राप्त होती है। प्राचीनकाल में "ध्यानयोग" की साधना के लिए श्रमण संस्कृति में तप, संवर, भावना, समता, अप्रमत्त शब्द का प्रयोग होता था। उसके पश्चात् समता, समाधि, ध्यान और योग शब्द का प्रयोग होने लगे। खास तौर से तीनों ही धाराओं में 'योग' शब्द का प्रयोग होने लगा यानी 'ध्यान' शब्द के स्थान पर 'योग' शब्द प्रयुक्त होने लगा, पर दोनों शब्दों का योग मिलने से 'ध्यानयोग' बन गया। ध्यान का सामान्य अथ है-सोचना । समझना । ध्यान रखना। किसी बात या कार्य में मन के लीन होने की क्रिया, दशा या भाव । चित्त की ग्रहण या विचार करने की वत्ति या शक्ति, समझ, बुद्धि, स्मृति, याद, ध्यान आना, विचार पैदा होना । ध्यान छूटना- एकाग्रता नष्ट होना। ध्यान जमना। आदि। ध्यान का विशिष्ट अर्थ-मानसिक प्रत्यक्ष है। बाह्य इन्द्रियों के प्रयोग के बिना केवल मन में लाने । की क्रिया या भाव । अन्तःकरण में उपस्थित करने की क्रिया या भाव। केवल ध्यान द्वारा प्राप्तव्य । ध्यान में मग्न । चेतना को वृत्ति चेतस् बोध या ज्ञान कराने वाली वृत्ति या शक्ति । चित्त एकाग्र होना । विचार स्थिर होना । प्रशस्त ध्यान । ध्यान शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ-जिसके द्वारा किसी के स्वरूप का, अन्तर्मुहुर्त स्थिरतापूर्वक एक वस्तु के विषय में चिन्तन, अथवा ध्येय पदार्थ के विषय में अक्षुण्ण रूप से तैलधारा की भांति चित्तवृत्ति के प्रवाह का चिन्तन करना ध्यान कहा जाता है । योग शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ- "योग" शब्द की व्युत्पत्ति "युज्" धातु से मानी गई है। “युज" धातु के अनेक अर्थ हैं, उनमें से यहाँ 'जोड़ना' या 'समाधि' मुख्य है । बौद्ध परम्परा में युज् धातु का प्रयोग 'समाधि' के अर्थ में लिया है तथा वैदिक परम्परा में दोनों ही अर्थ प्रचलित हैं। 'चित्तवृत्ति का SMSAPNARMADAM RAGHARE GHATANAJALAM ३३० | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग SLNEMबर-1300

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