Book Title: Sadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Author(s): Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 663
________________ E कुण्डली-प्रबोधन के लिये शास्त्रकारों ने भी इसीलिये अनेक प्रयोग दिखलाये हैं। ऐसे उपायों में (१) योग-शक्ति-मूलक, (२) भक्ति-भुलक (जप-पाठरूप), और (३) औषध सेवन मूलक प्रयोग प्रमुख हैं। वैसे साधना के सभी अङ्ग-प्रत्यङ्ग कुण्डलिनी-जागरण की क्रिया में सहयोगी होते हैं, उनकी लघुता और दीर्घता पर शङ्का किये बिना उनका सहयोग प्राप्त करना ही चाहिये अन्यथा जैसे किसी मशीन की संचालन-क्रिया में किसी भी छोटे अथवा बड़े पुर्जे की खराबी से बाधा पहुँचती है उसी प्रकार इस कार्य में भी बाधा आती है। ___चूंकि कुण्डलिनी-प्रबोधन अनन्त शक्तियों के साथ-साथ मोक्ष के द्वार तक पहुँचाने वाला है, अतः स्वाभाविक है कि इसके जागरण के उपाय तथा इसे प्रबुद्ध करने वाली साधना बहुत सहज नहीं है। इसी कारण ऐसी साधना को साधकगण सदा से हो गूरु-परम्परा से प्राप्त करते रहे हैं, और गुरुजन भी अधिकारी शिष्य को ही यह विद्या देते थे; अतः इस साधना का सुस्पष्ट वर्णन किसी ग्रन्थ में पूर्णरूपेण नहीं मिलता है तथापि जो प्राप्त है उसका वर्णन इस प्रकार है(१) योग-शक्ति-मूलक उपाय जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि कुण्डलिनी स्वयम्भूलिङ्ग में साढ़े तीन बार आवेष्टित होकर स्थित है और सुषुम्ना का मुख तथा कुण्डलिनी का मुख पास-पास है अथवा सुषुम्ना का मुख कण्डलिनी के मुख में बन्द है। इसी कारण कुण्डलिनी में चेतना हीनता बनी रहती है द्वारा प्रबुद्ध करने पर उसका मुख खुल जाता है और सुषुम्ना का मुख भी खुल जाता है। फलतः कुण्डलिनी सुषुम्ना में प्रवेश कर जाती है। योगशास्त्र के आचार्यों ने इस रहस्य को ग्रन्थित्रय-भेदन के माध्यम से समझाते हुए बतलाया है कि (१) कन्दस्थान से मुलाधार चक्र के मध्य का भाग 'ब्रह्मग्रन्यि' स्थल है। यह सुषुम्ना का चतुर्थ भाग भी कहलाता है । यही एक ओर से मूलाधार चक्र के पास सुषुम्ना के ततीय भाग से जुड़ता है और दूसरी ओर कन्द से जुड़ा हुआ है। शरीर की सभी नाड़ियाँ इसी कन्द स्थान पर आकर मिलती हैं और सुषुम्ना से प्राप्त चेतना से विषयबोध अथवा त्रियाचेतना को प्राप्त करके सम्पूर्ण शरीर में फैलाती हैं । यही वह स्थान है जहाँ से विद्युत् का वितरण होता है । ब्रह्मग्रन्थि का यह भाग कफ आदि अवरोधक तत्वों से ढका रहता है अतः इसके आवरण-मल को हटाने के लिये योगशास्त्रों में हठयोग' प्राणायामप्रक्रिया का निर्देश करता है । (२) मूलाधार से अनाहत का मध्य भाग 'विष्णु ग्रन्थि' स्थल है। इसे सुषुम्ना का तृतीय भाग भी कहते हैं । यही मूलाधार से एक ओर जुड़ा हुआ है और दूसरी ओर अनाहत चक्र के पास सुषुम्ना के द्वितीय भाग से जुड़ता है । स्थूल तत्त्व, अग्नि, जल और पृथिवी के स्थान अर्थात् इन तत्त्वों से सम्बद्ध चेतना के केन्द्र इसी भाग में हैं । ब्रह्मग्रन्थि-भेदन रूप प्रथम उद्बोधन के पश्चात् इस द्वितीय ग्रन्थि का भेदन करने के लिये प्राणायाम के पहले से कुछ उत्कृष्ट प्रयोगों का निर्देश हठयोग में हुआ है। (३) अनाहत चक्र से आज्ञा चक्र के मध्य का भाग 'रुद्र ग्रन्थि' स्थल माना गया है । यह सुषुम्ना का द्वितीय भाग कहलाता है । यही एक ओर से आज्ञाचक्र के पास सुषुम्ना के प्रथम भाग से जुड़ता है और ३२४ | सातवां खण्ड : भारतीय संस्कृति में योग Attr LEAFIRST F ATTA www.jaineli TEAfte

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