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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
जैन साहित्य में यह स्वीकार किया गया है कि लौकिक, वैदिक, एवं अन्य सब प्रकार के सामयिक कार्यो में गणित ( संख्यान) का प्रयोग किया जाता है ।
लौकिके वैदिके वापि तथा सामयिकेऽपि यः । व्यापारस्तत्र सर्वत्र
संख्यानमुपयुज्यते ॥
आचारांग नियुक्ति (५.५० ) में भी कहा गया है कि प्रत्येक जैन आचार्य को गणियं का अध्ययन करना चाहिये ।
महावीराचार्य का 'गणितसार संग्रह' नामक ग्रन्थ प्रसिद्ध है । इसके दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । इस ग्रन्थ पर संस्कृत, तेलगु एवं कन्नड़ आदि भाषाओं में टीकाएँ लिखी गयी हैं ।
इन्हीं महावीराचार्य ने बीजगणित पर एक सुन्दर पुस्तक लिखी है ' षट्त्रिंशिका' । इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति जयपुर के एक शास्त्र भण्डार में प्राप्त है ।
प्राकृत भाषा में वि० सं० १३७२-१३८० के बीच प्रसिद्ध जैन गृहस्थ विद्वान ठक्कर फेरु ने 'गणितसार- कौमुदी' नामक ग्रन्थ लिखा है । भास्कराचार्य की 'लीलावती' से साम्य रखते हुए भी इस गणितसार- कौमुदी में अनेक विषय नये हैं । सांस्कृतिक दृष्टि से इस ग्रन्थ का विशेष महत्त्व है । अभी यह ग्रन्थ अप्रकाशित है ।
गृहस्थ जैन विद्वान पल्लीलाल अनन्तपाल ने 'पाटीगणित' नामक एक ग्रन्थ लिखा है । इसके अतिरिक्त भी ५-६ गणित विषयक जैन रचनाएँ उपलब्ध हैं ।
महावीराचार्य के कार्य को जैनाचार्य श्रीधर ने आगे बढ़ाया। उन्होंने त्रिशतिका, पाटीगणित एवं बीजगणित ( अनुपलब्ध) नामक ग्रन्थों की रचना कर गणित के इतिहास में कई नये सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं । द्विघात समीकरण के साधन का नियम श्रीधर ने प्रतिपादित किया है । श्रीधर ही केवल ऐसे गणितज्ञ हैं, जिन्होंने बीजगणितीय विषय का भी ज्यामितीय उपचार किया है ।
जैनाचार्यों के गणित विषयक ग्रन्थों में जो गणितीय शब्दावली प्राप्त होती है उसमें सर्वप्रथम यह जानने को मिलता है कि गणियं अर्थात गणित स्वतन्त्र अध्ययन का विषय था, केवल ज्योतिष अथवा भूगोल के लिये उसका उपयोग नहीं था । इसी महत्ता के कारण जैन साहित्य में गणितानुयोग नाम से एक स्वतन्त्र विभाजन करना पड़ा। इस प्राचीन विभाजन को आधार मानकर मुनिश्री कन्हैयालाल 'कमल' ने सम्पूर्ण आगम ग्रन्थों से गणित की सामग्री संकलित कर उसे 'गणितानुयोग' नाम से प्रकाशित की है । अब हिन्दी अनुवाद के साथ गणितानुयोग का नया संस्करण छप गया है । गणितशास्त्र के जैन ग्रन्थों की सामग्री का सही उपयोग वही कर सकता है जो गणित एवं जैन सिद्धान्त दोनों में पारंगत हो । समयसमय पर कुछ विद्वान साधु-साध्वियों ने इस दिशा में प्रयत्न किये हैं । किन्तु प्रोफेसर लक्ष्मीचन्द्र जैन इस विषय के आधार स्तम्भ कहे जा सकते हैं । उनके विद्वत्तापूर्ण लेखन से पाश्चात्य जगत् भी जैन गणित के बहुमूल्य सिद्धान्तों से परिचित हुआ है ।
डा० उपाध्याय ने जैन ग्रन्थों में प्रयुक्त गणितीय शब्दावली का इस प्रकार आकलन किया है
२०० | पंचम खण्ड : सांस्कृतिक सम्पदा
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