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साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
प्राचीन उल्लेख मिलते हैं। उत्तराध्ययन नियुक्ति में वाराणसी के उत्तर-पूर्व दिशा में तेंदुक उद्यान में गण्डी यक्ष के यक्षायतन का उल्लेख मिलता है। यही यक्ष हरिकेशबल नामक चाण्डालजाति के जैन श्रमण पर प्रसन्न हुआ था। उत्तराध्ययन सूत्र (ईसा-पूर्व) में और उसकी नियुक्ति में यह कथा विस्तार से दी गई है। दूरकेशबल मनि भिक्षार्थ यज्ञ मण्डप में जाते हैं. चाण्डाल जाति के होने के कारण मनि को यक्ष मण्डप से भिक्षा नहीं दी जाती है और उन्हें यज्ञमण्डप से मारकर निकाला जाता है-यक्ष कुपित होता है- सभी क्षमा माँगते हैं, हरिकेश सच्चे यज्ञ का स्वरूप स्पष्ट करते हैं आदि । प्रस्तुत कथा से यह निष्कर्ष अवश्य निकलता है -यक्ष-पूजा का श्रमण परम्परा में उतना विरोध नहीं था जितना कि हिंसक यज्ञों के प्रति था। उत्तराध्ययन की यह यज्ञ की नवीन आध्यात्मिक परिभाषा हमें महाभारत में भी मिलती है । हो सकता है कि हरिकेश की इसी घटना के कारण वाराणसी का यह गण्डीयक्ष हरिकेश यक्ष के नाम से जाना जाने लगा हो । मत्स्यपुराण में हरिकेश यक्ष की कथा वर्णित है --उसे सात्विकवृत्ति का और तपस्वी बताया गया किन्तु उसे शिवभक्त के रूप में दर्शित किया गया है। उत्तराध्ययन की कथा-मत्स्यपुराण की अपेक्षा प्राचीन है । कथा का मूल स्रोत एक है और उसे अपने धर्मों के रूपान्तरित किया गया है। यक्षपजा के प्रसंग की चर्चा करते हए श्री मोतीचन्द्र ने उत्तराध्ययन के ३/१४ और १६/१६ ऐसे दो सन्दर्भ दिये हैं-किन्तु वे दोनों ही भ्रान्त हैं ।38 हरिकेशबल का चाण्डाल श्रमण विवरण और उसका सहायक यक्ष का विवरण उत्तराध्ययन के १२ वें अध्याय में है । गाण्डि तिंदुक यक्ष का नामपूर्वक उल्लेख उत्तराध्ययन नियुक्ति में है।
(३) जैनधर्म प्रारम्भ से ही कर्मकाण्ड और जातिवाद का विरोधी रहा है और उनके इस विरोध की तीन घटनाएँ वाराणसी के साथ ही जुड़ी हुई है-प्रथम घटना-पार्श्वनाथ और कमठ तापस के संघर्ष की है, दूसरी घटना हरिकेशबल की याज्ञिकों से विरोध की है जिसमें जातिवाद और f यज्ञों का खण्डन है-और तीसरी घटना जयघोष और विजयघोष के बीच संघर्ष की है इसमें भी सदाचारी व्यक्ति को सच्चा ब्राह्मण कहा गया है और वर्णव्यवस्था का सम्बन्ध जन्म के स्थान पर कर्म से बताया गया है।
पार्श्व के युग से ही हमें जैन साहित्य में इन संघर्षों के कुछ उल्लेख मिलते हैं। वस्तुतः ये संघर्ष मुख्यतः कर्मकाण्डीय परम्परा को लेकर थे। जैसा कि सुविदित है कि जैन परम्परा हमेशा कर्मकाण्डों का विरोध करती रही । उसका मुख्य बल आन्तरिक शुद्धि, संयम और ज्ञान का रहा है। पार्श्वनाथ वाराणसी के राजा अश्वसेन के पुत्र माने जाते हैं। पार्श्व को अपने बाल्यकाल में सर्वप्रथम उन तापसों से संघर्ष करना पड़ा जो देहदण्डन को ही धार्मिकता का समस्त उत्स मान बैठे थे और अज्ञानयुक्त देहृदण्डन को हो. धर्म के नाम पर प्रसारित कर रहे थे। पार्श्वनाथ के समय में कमठ की एक तापस के रूप में बहुत प्रसिद्ध थी। वह पंचाग्नि तप करता था। उसके पंचाग्नि तप में ज्ञात या अज्ञात रूप से अनेक जीवों की हिंसा होती थी। पार्वं ने उसे यह समझाने का प्रयास किया कि धर्म मात्र कर्मकाण्ड नहीं, उसमें विवेक और आत्मसंयम, आवश्यक है। किन्तु आत्मसंयम का तात्पर्य भी मात्र देहदण्डन नहीं है। पार्श्व धार्मिकता के क्षेत्र में अन्धविश्वास और जड़क्रियाकाण्ड का विरोध करते हैं और इस प्रकार हम देखते हैं कि ऐतिहासिक दृष्टि से जैन परम्परा को अपनी स्थापना के लिए सर्वप्रथम जो संघर्षा करना पड़ा उसका केन्द्र वाराणसी ही था। पार्श्वनाथ और कमठ के संघर्ष की सूचना हमें जैन साहित्य में तीर्थोद्गारिक सामा आवश्यकनियुक्ति में मिलती है। पार्श्वनाथ और कमठ का संघर्ष वस्तुतः ज्ञानमार्ग और देहदण्डन/कर्मकाण्ड का
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२२४ ! पंचम खण्ड : सांस्कृतिक सम्पदा -
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