________________
REET MORMATEST
साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
कुण्डलिनी के स्थान के सम्बन्ध में किसी प्रकार का वैमत्य नहीं है। यह निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है कि मूलाधार चक्र से ऊपर और स्वाधिष्ठान चक्र के नीचे कुण्डलिनी का स्थान है। यह स्थान कन्द स्थान के अतिनिकट है। योनिस्थान के ठीक पीछे स्वयंभू लिङ्ग की स्थिति है, इस स्वयंभू लिङ्ग में ही सार्धत्रिवलयाकृति में अर्थात् स्वयंभू लिङ्ग को साढ़े तीन बार लपेटे हुए कुण्डलिनी स्थित रहती है।
__ स्मरणीय है कि अधुनिक शरीर विज्ञान अथवा चिकित्सा शास्त्र के विद्वानों को शरीर के इस भाग में ऐसे किसी स्थूल अवयव के होने की सूचना प्राप्त नहीं हुई है जिसका चित्र खींचा जा सके, अथवा किसी भी यंत्र के द्वारा उसे देखा और परखा जा सके । किन्तु साथ ही यह भी स्मरणीय है कि आधुनिक चिकित्सा शास्त्र से सम्बद्ध शरीर विज्ञान यह निविवादरूप से स्वीकार करता है कि मानव के शरीर में चेतनाकेन्द्र यद्यपि मस्तिष्क अवश्य है तथापि चेतना से सम्बद्ध समस्त ज्ञान और चेष्टाओं का संचालन मस्तिष्क से ही न होकर अनेक बार सुषुम्ना के द्वारा भी होता है, और यह सुषुम्ना नाड़ी मेरुदण्ड (Spinal cord) के मध्य में स्थित है । साथ ही वहाँ यह भी स्वीकृत है कि पूर्ण चेतना युक्त मानव के भी मस्तिष्क और सुषुम्ना का केवल कुछ अंश ही क्रियाशील रहता है, सम्पूर्ण नहीं । जिस मनुष्य के और सुषुम्ना के चेतना केन्द्र अर्थात् समझने और क्रिया करने के नियामक केन्द्र का जितना अधिक अंश क्रियाशील होता है, वह मनुष्य उसी अनुपात में समझने और कुछ करने में सक्षम हो पाता है।
इसी प्रसंग में योगशास्त्र में वर्णित नाड़ी तन्त्र को भी स्मरण कर लेना आवश्यक होगा, जिसमें शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियों के होने की चर्चा करने के बाद सुषुम्ना ईडा पिंगला कुहू कूर्म यशस्विनी
यस्विनी आदि चौदह अथवा दस को प्रमुख बताकर उसमें भी प्रथम तीन अर्थात् सुषुम्ना ईडा और पिङ्गला को प्रधान कहा गया है । जिनमें अलग-अलग समय में स्थूल या सूक्ष्म प्राणों का संचार होता है । इनमें से ईडा और पिङ्गला क्रमशः बायें और दाहिने नासिका विवर से कन्द स्थान तक स्थित मानी जाती हैं । सुषुम्ना कन्द के मध्य से प्रारम्भ होकर मेरुदण्ड के बीच से होती हुई भ्र मध्य (आज्ञा चक्र) तक जाती है, जहाँ उसका अन्तिम छोर मस्तिष्क से मिलता है। इस अन्तिम छोर को योग परम्परा की भाषा में ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं । सुषुम्ना नाड़ी का दूसरा नाम ब्रह्मनाड़ी भी है। इस नाड़ी का प्रारम्भ यद्यपि कन्द (नाड़ी कन्द) के मध्य से है, किन्तु मूलाधार चक्र से पास एक ब्रह्मग्रन्थि स्वीकार की जाती है। इस ग्रन्थि का भेदन मुलाधर चक्र के जागरण के साथ होता है। इस नाड़ी में दो अन्य ग्रन्थियाँ भी योग परम्परा में स्वीकार की गयी हैं विष्णुग्रन्थि और रुद्रग्रन्थि । विष्णुग्रन्थि हृदय के पास मानी जाती है और रुद्रग्रन्थि भूमध्य से ऊपर । अनाहतचक्र के जागरण से विष्णुग्रन्थि का भेदन होता है और आज्ञाचक्र के जागरण से रुद्रग्रन्थि का भेदन । रुद्रग्रन्थि के भेदन के बाद योगी के लिए कुछ भी कर्त्तव्य शेष नहीं रहता। वह परमपद प्राप्त कर लेता है । दूसरे शब्दों में वह रुद्र विष्णु अथवा परब्रह्म के सदृश हो जाता है।
योगशास्त्र की परम्परा में एक बात यह भी निर्विवाद रूप से स्वीकृत है कि सामान्यरूप से प्राण ईडा या पिङ्गला नाड़ी में बारी-बारी से गतिशील रहते हैं; किन्तु योगी साधक उन्हें सुषुम्ना में साधना के द्वारा प्रवाहित कर लेता है । उसके अनन्तर ही अध्यात्म के क्षेत्र में उसका प्रवेश होता है, उसका चित्त एकाग्र हो पाता है। साधना के क्रम में प्राणायाम साधना के द्वारा ब्रह्मनाड़ी के मुख, जो मूलाधार चक्र के पास स्थित तथा कफ आदि अवरोधक तत्त्वों द्वारा रुंधा हुआ है, कफ आदि अवरोध हटने पर खुल जाता
प्राणशक्ति कुण्डलिनी एवं चक्र साधना : डॉ० म० म० ब्रह्ममित्र अवस्थी | ३०६
tity
STON