Book Title: Sadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Author(s): Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 658
________________ ++++++44+LA LD साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ । CADEMICALtmene RUAR + + इस चका के जागृत होने का मुख्य परिणाम यह है कि साधक योगी को सृष्टि की रचना, उसका पालन और उसके संहार का सामर्थ्य भी प्राप्त हो जाता है। अनाहत चक्र अनाहत चका की स्थिति हृदय के निकट मानी जाती है। यह स्थान मणिपूर और विशुद्ध चका के मध्य में स्थित है। यह स्थान वायु तत्त्व का केन्द्र है ऐसा स्वीकार किया जाता है । शरीर में महः लोक की स्थिति भी यहीं है। इस तत्त्व का प्रधान गुण स्पर्श है । त्वचा और हाथ इस चका से सम्बन्धित कामशः ज्ञानेन्द्रिय और कमन्द्रिय है । प्राणायाम मन्त्र में 'ओम् महः' अंश का अर्थ और उसकी भाव करते हुए प्राणायाम की साधना इस चका को जागृत करने के लिए की जाती है। वायवी धारणा भी इस स्थान पर सम्पन्न होती है । यहाँ धारणा करने से ही साधक को अनाहत नाद की अनुभूति होती है, इसलिए इस स्थान पर स्थित चका (चेतना केन्द्र) को अनाहत चका कहा जाता है । विष्णुग्रन्थि भी यहीं है, जिसका भेदन इस चका के जागरण द्वारा होता है। अनाहत चक्र में बारह दल (पँखुड़ियाँ) स्वीकार किये गये हैं जिनमें एकैकशः क ख ग घ ङ च ॐ अँ अँ अँटॅ और 7 बीजाक्षर स्वीकार किये जाते हैं। इन बारह दलों के मध्य कर्णिका में वायु तत्त्व का बीज मन्त्र यँ अंकित किया जाता है। इस चक्र का वर्ण अरुण (उगते हुए सूर्य का रंग) माना गया है । बीज का वाहन मृग है। इस चक्र (चेतना केन्द्र) का देवता ईशान रुद्र तथा काकिनी उसकी शक्ति मानी जाती है । इसके यन्त्र का स्वरूप षट्कोण बनाया जाता है । योग के प्राचीन ग्रन्थों में यह स्वीकार किया गया है कि इस चक्र में प्राण और मन को पहुँचा देने से वायवी धारणा की सिद्धि योगी को मिल जाती है, जिसके फलस्वरूप समस्त वायु तत्त्व योगी के वश में हो जाता है । वायु का आघात अथवा वायु की न्यूनता का कोई प्रभाव योगी पर नहीं पड़ता। वायू तत्त्व पर विजय के कारण ही प्राणवायु उसके वश में इस प्रकार हो जाता है कि वह अपनी इच्छानुसार अपने शरीर से प्राणों को निकाल कर दूसरे शरीर में प्रवेश करने में समर्थ हो जाता है, अथवा प्राणों का विस्तार करके सौभरि की तरह निर्माण चित्तों का निर्माण करके अनेक शरीरों को धारण कर सकता है। ईशित्व और वशित्व सिद्धियाँ भी उसे प्राप्त हो जाती हैं। समस्त ज्ञान और काव्य रचना का चातुर्य भी उसे अनायास प्राप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त अनाहत नाद की अनुभूति से समाधि की सिद्धि भी योगी को हो जाती है । विशुद्ध चक्र विशुद्ध चक्र का स्थान कण्ठप है। अनाहत और आज्ञा चक्र के मध्य यह स्थान है। कण्ठकप को आकाशतत्त्व का केन्द्र माना जाता है। शरीर में जनः लोक की प्रतिष्ठा यहीं स्वीकार की जाती है। आकाश तत्त्व का प्रधान गुण 'शब्द' की उत्पत्ति स्थान भी कण्ठ ही है । श्रोत्र ज्ञानेन्द्रिय एवं वाक् कर्मेन्द्रिय का सम्बन्ध इस आकाश तत्त्व से है। इस तत्त्व को, चेतना के शक्तिशाली इस केन्द्र विशुद्ध चक्र को जागृत करने के लिए ही प्राणायाम मन्त्र के 'ओम् जनः' इस अंश का अर्थ भावनापूर्वक जप किया जाता है । आकाश धारणा की साधना भी यहीं सम्पन्न की जाती है । इस आकाश धारणा के सिद्ध होने पर दर से दर स्थान में अथवा पूर्व से पूर्व काल में उत्पन्न शब्दों को योगी सुन सकता है और आकाश की अनन्त सीमा के अन्दर वह स्वच्छन्द विचरण कर लेता है। प्राणशक्ति कुण्डलिनी एवं चका-साधना : डॉ० म० म० ब्रह्ममित्र अवस्थी | ३१६ international Persore Stuse-only www.jairme CinemamarpatIPPA

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