Book Title: Sadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Author(s): Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 654
________________ साध्वीरज ठरावती अभिनन्दन वन्ध NAINA ........ ............. S HETE+ PyaNesaMIRRIVENTRANCERTICAUSHISMRUNNINMAHARASOINISsnothinkedIRAITSundCRIMAMMERMANEND - लिए, साधना की योग्यता प्राप्त करने के लिए एक साथ एक से अधिक उपायों को भी अपनाया जा सकता है । यमों और नियमों का पालन अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का त्याग), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन महाव्रतों का पालन; शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान (भक्ति-प्रणति) की समष्टिरूप क्रिया पथ का अनुसरण अवश्य करना चाहिए । आसन, मुद्रा और बन्धों द्वारा-प्राणायाम द्वारा नाड़ीशुद्धि करके भी साधना की योग्यता प्राप्त होती है। हठयोग के ग्रन्थों में इन साधना की तैयारी के क्रम में स्थूल शरीर की शुद्धि के लिए नेति, धौति, बस्ति, कुञ्जर, शंखप्रक्षालन और त्राटक इन षट्कर्मों की तथा नाड़ी शुद्धि के लिए महामुद्रा, महाबन्ध तथा सूर्यभेद उज्जायी, शीतली, सीत्कारी, भृङ्गी एवं भस्त्रिका प्राणायाम प्रकारों की विधि बताई गयी है, जिनके द्वारा साधक स्थूल शरीर एवं समस्त नाड़ियों की शुद्धि करके केवलकुम्भक अथवा कुण्डलिनी साधना में प्रवृत्त होता है। इस केवलकुम्भक के लिए पहले सहित कुम्भक प्राणायाम किया जाता है । इसके द्वारा भी नाड़ी शुद्धि होती है । जैसे-जैसे प्राण और अपान निकट आने लगते हैं, मणिपूरचक्र अर्थात् नाभि स्थान के पास स्थित अग्नि तीव्र होती है, उसके तीव्र ताप से ब्रह्मनाड़ी सुषुम्ना के मुख (अग्रभाग) पर जमा हुआ कफ आदि अवरोधक मल नष्ट हो जाता है, हट जाता है । अवरोधक मल के पूर्णतया हट जाने पर सुषुम्ना का मुख स्वतः खुल जाता है, तीव्र अग्नि का ताप इस कार्य को सम्पन्न करता है । सुषुम्ना का मुख खुल जाने पर कन्द से जुड़ा हुआ सुषुम्ना का निम्नतम भाग, जिसे हमने सुषुम्ना का चतुर्थ भाग कहा है, इस शुद्ध हुए सुषुम्ना-मुख से, जो मूलाधार चक्र के पास है, जुड़ जाता है और उसमें स्थित प्राणशक्ति, जिसे कुण्डलिनी या जीवशक्ति भी कहते हैं, मूल चेतना केन्द्र से जुड़ जाती है। अर्थात् कुण्डलिनी जागृत हो जाती है। इस साधना क्रम में शरीर और स्थूल नाड़ी की शुद्धि पहले होती है, अतः शरीर में विद्यमान प्रत्येक प्रकार के रोगों की निवृत्ति सर्वप्रथम होती है। जिसके फलस्वरूप व्याधि और स्त्यानरूपविघ्नों की निवृत्ति होती है । इसके बाद क्रमशः स्थूल एवं सूक्ष्म नाड़ियों की शुद्धि होने पर संशय, प्रमाद आदि विघ्न भी दूर होते हैं और साधक की साधना निर्विघ्न रूप से आगे बढ़ने लगती है। चक्र-साधना : कुण्डलिनी जागरण योग साधना के क्रम में कुण्डलिनी जागरण का अत्यधिक महत्व है। इसके लिए प्राचीनकाल से योग साधना की परम्परा में वक्रों का ध्यान और उनमें चित्तलय की विशेष महिमा स्वीकार की जाती है । ये चक्र वस्तुतः क्या हैं ? अथवा शरीर में इन चक्रों की वास्तविक सत्ता है या नहीं ? इस विषय पर कछ आचार्यों एवं शरीर रचना विज्ञानियों में मतभेद है। उदाहरणार्थ, आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती, जो स्वयं एक बहुत बड़े योगी भी थे, चक्रों की सत्ता को ही अस्वीकार करते हैं। कहा । है कि उन्होंने नदी में बहते हुए एक मुर्दे को पकड़कर शल्य किया करके चकत्रों की स्थिति को देखना चाहा, किन्तु उन्हें इसमें निराशा ही हाथ लगी। शरीर विज्ञान के आचार्य भी योग परम्परा में वर्णित चक्रों की सत्ता और उनके स्वरूप विवरण को भी स्वीकार नहीं करते तथापि साधक परम्परा में इनकी सत्ता को-इनके विशिष्ट स्वरूपों को स्वीकार करते हुए इनके ध्यान की तथा इनमें चित्तलय की वड़ी महिमा स्वीकार की गयी है। वस्तुतः ये चक्र मेरुदण्ड के अन्तर्गत मूलाधार से सहस्रार तक, दूसरे शब्दों में मेरुदण्ड के सबसे निचले भाग से आरम्भ होकर उसके उच्चतम भाग से भी ऊपर मस्तिष्क तक सुषुम्ना नाड़ी की स्थिति प्राणशवित कुण्डलिनी एवं चक्र साधना : डॉ० म० म० ब्रह्ममित्र अवस्थी | ३१५ + TFET CATE TREAT www.jain

Loading...

Page Navigation
1 ... 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716