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साध्वीरजपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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फलतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्राणशक्ति और कुण्डलिनी शक्ति एक ही शक्ति के दो नाम हैं । कुण्डलिनी का जागरण और प्राणों का सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश और उत्तरोत्तर ऊर्ध्वगमन परस्पर अभिन्न हैं। इनमें केवल शब्दभेद है, भाषाभेद है, वस्तुभेद अर्थात् साधना और सिद्धि में कोई भेद नहीं है।
यहाँ इस एक तथ्य को नहीं भूलना चाहिए कि प्राणशक्ति का अर्थ श्वास-प्रश्वास के अन्दर और बाहर प्रविष्ट होने वाली वायु नहीं है। प्राणशक्ति से निरन्तर सम्बद्ध होने के कारण इसे भी कभी-कभी प्राण कह लेते हैं, ये बाह्य प्राण हैं, जो प्राणशक्ति से भिन्न हैं। इनको ही यदि प्राण मानेंगे तो इन्हें बाहर निकालना कौन चाहेगा, क्योंकि कोई नहीं चाहता कि प्राण बाहर निकलें। यदि यह बाहरी श्वास-प्रश्वास ही प्राण होते, तब तो प्राण निकल जाने पर इन्हें ही भरकर और पुनः न निकलने देने के लिए कृत्रिम उपायों से मार्ग निरोध करके किसी को प्राणवान् अर्थात् जीवित किया जा सकता। किन्तु ऐसा नहीं है। इसका कारण है कि प्राणशक्ति और बाहरी वायु जिसे हम श्वास-प्रश्वास द्वारा अन्दर लेते हैं, परस्पर भिन्न हैं, दो चीजें हैं। एक नहीं हैं। इसीलिए प्राणों का, प्राणशक्ति के बाह्य अभिव्यक्तरूप का, विभाजन करते हुए स्थूल वायु अथवा स्थूल प्राणों का विभाजन 'प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान', इन पाँच नामों में किया जाता है, तथा इनके स्थानों और कार्यों का पृथक-पृथक रूप से वर्णन किया जाता है। इन पाँच स्थूल प्राणों के अतिरिक्त 'नाग, कुर्म, कृकर, देवदत्त और धनञ्जय' पाँच अन्य स्थूल प्राण भी हैं, किन्तु ये प्राण अपान की अपेक्षा सूक्ष्म है, अथवा इनकी क्रिया का बोध सर्वसामान्य को कम होता है। महत्त्व इन सभी का समान है, कोई इनमें प्रधान या अप्रधान नहीं है, कार्य सबके भिन्न-भिन्न हैं । इन दसों प्राणों में श्वास-प्रश्वास में आने-जाने वाला वायु क्योंकि अत्यन्त स्थूल है, अथवा यों कहें कि इसका बोध, इसकी गति का बोध, सबको निरन्तर होता रहता है, अतः प्राणशक्ति के रूप में इसे भी प्राण कह दिया गया है।
___ इस मूल प्राण को प्राणशक्ति अथवा शक्ति कह सकते हैं। इसे ही कुण्डलिनी के पर्यायवाची शब्दों में शक्ति, जीवशक्ति और ईश्वरी आदि नामों से स्मरण किया जाता है। यह प्राण ही चेतना का मूल आधार है। सम्पूर्ण बोध (ज्ञान ग्रहण) और क्रिया का संचालन इसके द्वारा ही होता है। इसकी महिमा का वर्णन करते हुए ही प्रश्न उपनिषद् में स्पष्ट कहा गया है 'तस्मिन् उत्क्रामति इतरे सर्व एव उत्क्रामन्ते' [प्रश्न २.४] ।
इस प्राणशक्ति का, चेतना शक्ति का, मुख्य केन्द्र मस्तिष्क है। इसके उपकेन्द्र सुषुम्ना नाड़ी में हैं । सुषुम्ना नाड़ी के तीन खण्ड हैं । यदि मस्तिष्क को भी कार्य के आधार पर एक कहना चाहें तो चार खण्ड हैं (१) मस्तिष्क इसका सबसे प्रशस्त और प्रधान भाग है, इसे योगशास्त्र की भाषा में सहास्रार पदम कहा जाता है। (२) उससे नीचे आज्ञाचक्र से अनाहत चक्र का अंश द्वितीय भाग है। इन दोनों के संयोग स्थल को रुद्रग्रन्थि कहते हैं । विद्युत तकनीक की भाषा में चाहें तो इसे एक फ्यूज कह सकते हैं। इस भाग के ऊपरी अंश से अवबोधक चेतना और प्रेरक चेतना का नियमन होता है जिसे आज्ञाचक्र कहते हैं। शरीर में यह स्थल भ्रू मध्य में माना गया है । इससे कुछ नीचे कण्ठ के पास विशुद्धचक्र है, जहाँ से अत्यन्त सूक्ष्म ज्ञान और क्रिया चेतना का नियमन होता है । यहाँ आकाश तत्त्व की प्रधानता है। आकाश के गुण शब्द की उत्पत्ति और उसके ग्रहण का नियमन केन्द्र यहीं पर है। उससे नीचे हृदय के पास सुषुम्ना के इस अंश का सबसे निचला भाग है। जिसे वायु का स्थान कहा जाता है। सम्पूर्ण स्पर्श चेतना एवं ३१२ | सातवां खण्ड भारतीय संस्कृति में योग
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