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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ |
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इसी के कारण वह पूत्र रूप में मानव प्राणी कोह माह तक अपने गर्भ में धारण कर प्राण-प्रण से उसकी रक्षा में जुटी रहती है।
अपरिमित वात्सल्य भाव के कारण ही पूत्र प्रसव के साथ ही उसका वात्सल्य भाव भी धवलदग्ध की धारा में बह निकलता है । जिसका एक-एक बूंद भी अनमोल है, उसकी कीमत नहीं आंकी जा सकती है।
'कहते हैं कि मानव के रक्त में जब तक माता के रज का एक भी कण विद्यमान रहता है वहाँ तक मर नहीं सकता । जिस क्षण उसका अन्तिम कण समाप्त हो गया उस दिन शरीर भी छूट जायेगा।'
माता के रूप में वह आदर्श सेवा की प्रतिमूर्ति भी है । जब तक पुत्र अपने पैरों पर खड़ा होकर कार्य करने में सक्षम नहीं बने वहाँ तक वह अपने तन की चिन्ता भी नहीं करके पुत्र की सेवा में लगी रहती है।
__मानव को प्रारम्भिक शिक्षा देने वाली भी नारी रूप माता ही है। माता द्वारा दिये गये धार्मिक, सामाजिक, नैतिक, पारिवारिक आदि सभी प्रकार के संस्कार जीवन पर्यन्त मानव के हृदय में जमे रहते हैं।
पुत्र चाहे रूपवान हो या विद्रूप, सुन्दर हो या असुन्दर, अंगोपांग से परिपूर्ण हो या विकल-कैसा भी हो, माता के हृदय में उसके प्रति असीम ममता एक समान ही रहती है। उसकी भावना में कभी कहीं भेदभाव नहीं आता है।
पुत्र के तन-मन की जरा-सी पीड़ा से भी माता का हृदय रो उठता है । पुत्र की पीड़ा/बेचैनी/ कष्ट को हटाने मिटाने के लिए वह प्राण-प्रण से जुट जाती है । उस समय उसका मातृत्व साकारता में खिल उठता है। वह समर्थ है या नहीं यह प्रश्न नहीं है किन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि उसका प्रयत्न कितना करुणा/ममता से भरा हुआ है।
किसी ने माता रूपी नारी के लिए कहा है कि उसे कभी भी किसी भी उपमा से उपमित नहीं किया जा सकता है । क्योंकि वह अनुपमेय होकर भी महत्वपूर्ण है।
माता मरुदेवी ने ऋषभदेव को, माता त्रिशला ने महावीर को, माता कौशल्या ने श्रीराम को, माता देवकी ने श्रीकृष्ण वासुदेव को, माता अंजना ने हनुमान को, माता सीता ने लव-कुश को, माता रुक्मिणी ने प्रद्युम्नकुमार को, माता मदनरेखा ने नमिराज ऋषि को, माता भद्रा ने शालिभद्र को, माता धारिणी ने जम्बूस्वामी जैसे पुत्र-रत्नों को जन्म देकर संसार को यह बता दिया कि नारी अबला होकर भी सबलों को जन्म देने वाली होती है।
मातारूप नारी की कुक्षि से श्रेष्ठतम महापुरुषों का जन्म हुआ है। इसके बारे में अधिक क्या कहें ? संक्षिप्त में इतना ही बहुत है कि नारी के बिना मानव कभी इस धरा पर अवतीर्ण नहीं हो सकता।
आदर्श पत्नी के रूप में नारी का जिस घर में जन्म होता है वह उस घर, परिवार, माता-पिता, भाई-बहन, ग्राम-नगर आदि सभी को, उनके प्रति उसकी जो ममता/मोह, लगाव है उस सभी को तोड़कर वह समय आने पर अपने पति के घर चली जाती है।
२४८ | छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान
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