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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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तथा अस्तित्व रक्षा के लिए कुछ मूल तत्त्वों की आवश्यकता होती है । अन्न, धन विद्या और शक्ति के अभाव में समाज तथा राष्ट्र का अस्तित्व निःशेष हो जाता है । अन्न की अधिष्ठात्री लक्ष्मी, विद्या की अधिष्ठात्री सरस्वती और शक्ति की अधिष्ठात्री दुर्गा आदि का स्तवन हम मातृ रूप में करते हैं।
जीवित जागृत राष्ट्र का चिन्ह उस राष्ट्र के नागरिकों के अन्तराल से उमड़ी हुई राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्र-गौरव की भावना है। राष्ट्र-प्रेमियों के लिए देश की भूमि एक निर्जीव भौतिक पदार्थ न होकर एक सजीव सचेतन सत्ता है। भूमि को मातृ पद के गौरव से विभूषित करके उसकी रक्षा के लिए सर्वस्व समर्पण करके वे स्वर्ग के प्रलोभनों का तिरस्कार कर देते हैं। और उनके अन्तराल से उमड़ पड़ता है, एक स्वर
"जननी जन्मभूमिश्न स्वर्गादपि गरीयसी।" राष्ट्रीय चेतना सम्पन्न नारी राष्ट्र के उत्थान में अपना उत्थान समझती है । सीता ने अपने वनवास के समय अयोध्या लौटते हुए लक्ष्मण को कहा था कि आर्य पुत्र (राम) मेरे विरह में प्रजा का कल्याण न भूलें । हनुमान जी के कहने पर लंका से सीताजी उनके साथ नहीं गईं। उन्होंने सोचा, यदि मैं यहाँ से अभी चली जाऊँ तो रावण की बन्दीशाला में जो अन्य देव-स्त्रियाँ हैं उनकी मुक्ति कैसे होगी ?
महाभारत के अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि सुलभा एक संन्यासिनी थी। किन्तु विदेहराज जनक के साथ उसका संवाद स्पष्ट करता है कि वह राष्ट्र की समस्याओं के प्रति जागरूक थी और उन समस्याओं का समाधान भी उसने प्रस्तुत किया था। उसने राजा जनक को आर्थिक असन्तुलन का निवारण करने तथा राजा की मर्यादित शक्ति आदि विषयों के सम्बन्ध में सुझाव दिये थे। विरक्त होते हुए भी उसे राष्ट्र के उन्नयन की चिन्ता थी।
आध्यात्मिक चिन्तन के क्षेत्र में गार्गी और मैत्रेयी के नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे हुए हैं । दमयन्ती, सावित्री, द्रौपदी, मदालसा प्रभृति नारियों ने समाज तथा राष्ट्र के विकास और उत्थान में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। दुर्गाबाई, लक्ष्मीबाई, चेन्नम्मा, पद्मिनी, कर्मावती आदि ने देश रक्षा के लिए हँसते-हँसते मृत्यु का वरण किया। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम अनेक रमणियों का ऋणी है।
आज के भारतीय समाज में एक ज्वलंत समस्या यह है कि हमने भौतिकवादी प्रगति की दौड में जीवन-स्तर को ऊँचा उठाया है परन्तु जीवन मूल्यों का क्षण होता जा रहा है। आध्यात्मिक आस्थाएँ शिथिल हो रही हैं और शाश्वत मूल्यों को झुठलाया जा रहा है । देहासक्ति और आभूषणआसक्ति ने समाज को दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है। ऐसी स्थिति में मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए आज की नारी के कन्धों पर गुरू भार है। विनोबा का कथन था कि नारी को कांचन मुक्ति अपनानी होगा।
"वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमानि च। विनोवा के अनुसार दुनियाँ में बीसवीं सदी में दो-दो महायुद्धों का होना पुरुष की अयोग्यता सिद्ध करता है। दोनों युद्धों के परिणाम यह बता रहे हैं कि अब समाज का संचालन स्त्री के हाथ में होना चाहिए और पोषण, शिक्षण तथा रक्षण तीनों ही अहिंसा पर आधारित हों।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रोत्थान की धुरी नारी : डॉ० श्रीमती निर्मला एम० उपाध्याय | २६३