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साधना पथ
जो जो पुद्गल देखने में, सुनने में, खाने-पीने में, सूंघने में, स्पर्श में आते हैं, उनमें आत्मा तन्मय होकर अच्छा-बुरा, प्रिय-अप्रिय, मीठा-कटु, सुवासित-दुर्गंधित, कोमल-कठिन आदि जो.पुद्गल का रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श स्वभाव है, उसे अपना मानकर उसमें तन्मय हो जाता है, परंतु सत्पुरुष के बोध से वह पुद्गल अपने से अर्थात् चेतन से भिन्न है, ऐसी समझ आती है; और उसीके अनुसार बारम्बार विचार करके धन, घर, बच्चे, स्त्री व देह आदि अपने नहीं, चैतन्य से भिन्न है, ऐसी समझ आती है। फिर बारम्बार विचारकर ज्ञान = जानना, दर्शन = देखना, चारित्र = स्थिर होना, ये चैतन्य के गुण पुद्गल से बिल्कुल भिन्न हैं। सत्पुरुष के बोध से ऐसा लक्ष्य में रखकर हर प्रकार की सांसारिक क्रिया करते हुए वृत्तिको क्षय करनेसे दर्शनमोह का नाश होता है।
जैसे हम आगगाड़ीमें बैठे हो और साथ वाली गाड़ी चल रही हो, उसकी ओर दृष्टि रखें तो लगता है कि अपनी ही गाड़ी चल रही है, किन्तु दृष्टि घुमाकर प्लेटफार्म की ओर देखें तो अपनी गाड़ी स्थिर लगती है। उसी तरह बाह्य पदार्थ पर दृष्टि रखकर काम करें तो अपने को लगता है, हम सुखी हैं, दुःखी हैं, अमीर हैं, गरीब हैं आदि। इस तरह जैसे संयोग मिले हो, तद्रूप आत्मा हो जाती है। यदि सत्पुरुष के बोध से दृष्टि बदलकर आत्मा की तरफ लक्ष्य रखे तो पता लगता है कि आत्माका स्वभाव स्थिर है। उसमें अन्य जो दिखता है, वह पुद्गलका स्वभाव है। आत्मा को उससे कुछ लेना देना नहीं, तो दर्शनमोह नाश होकर आत्मदृष्टि होते ही आत्मा अपने स्वभाव में स्थिर होती है। सव जो संयोग मिले हैं, वे स्वप्न समान हैं। जैसे निद्रा में स्वप्न आए और सव दिखाई दे, किन्तु जागृत होते ही स्वप्न में जो देखा था, भोगा था, वह सब मिथ्या लगता है। वैसे ही यह बड़ा स्वप्न है। आगे के भवों में जो भोगा होगा, उसमें से कुछ अभी है? और यह आयु पूरी होते ही आँख बंद होगी, तब इसमें से कुछ याद रहेगा? या साथ आएगा? स्वप्न समान सब पड़ा रहेगा। अतः वृत्तियों को वारम्वार पीछे हटाकर मंद करते हुए दर्शनमोह का क्षय होगा।