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साधना पथ
(९३) बो.भा.-१ : पृ.-३५१ जहाँ वहाँ भी संसार के कार्योमें उदासीनता बनी रहे ऐसा करना। वैराग्य, उपशम के बिना काम नहीं होगा। काल ऐसा है कि सब के मन एकसरीखे नहीं होते। क्लेश मिटे, वैसा करें। समभाव में रहना है उसके लिए प्रयत्न करें। ऐसा हो तो क्या और वैसा हो तो क्या? इस तरह संसार के कामों में उपेक्षा रखना। ज्यादा समय धर्म में जाएँ वैसा करना। कर्म के आगे तो किसी की चलती नहीं। समझ बढ़ेगी उतना सुखी होगें। श्री.रा.प.-३७
(९४) बो.भा.-२ : पृ.-१२ प्रभु पार्श्वनाथ को कमठ ने उपसर्ग किया और इन्द्र ने स्तुति की, दोनों में भगवान ने समता रखी। कृपालुदेव ने कहा है कि निन्दा करे, उस पर हमें द्वेष नहीं हैं। जगत भला-बुरा कहे, इससे कुछ कल्याण नहीं होता। लोक का भय जीव को लगता है। आत्मार्थी जीव को तो जगत चाहे जो कुछ भी कहे, पर जो अच्छा हो, वह कर लेना चाहिए। आत्मा की सिद्धि के लिए सब क्रियाएँ हैं। आत्मा में अनन्त शक्तियाँ हैं। जिसे सत्संग है, उसे योगाभ्यास की कोई जरूरत नहीं। सब क्रियाओं में गुरु की मुख्यता है। गुरु की आज्ञा चूक जाएँ तो खेल खतम। सत्संग में जो रंग लगता है, वह छूटता नहीं। चक्रवर्ती हो, तो भी अपने राज्य को तुच्छ जानकर छोड़ देता है और आत्मा में लग जाता है। आत्मा का हित करना है। सद्गुरु का प्रसंग करना है। ज्ञानी की आज्ञा से करना है। आत्मा का हित करने उठे तो जगत चाहे जो भी कहे, उस तरफ देखना ही नहीं। जिसे आत्म समाधि करनी है, उसे जगत को भुला देना होगा। कृपालुदेव कहते कि लोग चाहे जो भी कहें, पर आप उन्हें कुछ न बोलें, मौन रहें। भगवान को भूलना नहीं। मुझे मोह छोड़ना है, मुक्त होना है, यह इच्छा रखो। भगवान तो निराकार हैं, अतः ख्याल में नहीं आते परन्तु शांत भाव वाली मूर्ति हो, तो उसे देखकर जगत भूल सकता है और भगवान के गुणों में लीनता आ सकती हैं, उल्लास हो सकता है। अपने भावों के परिवर्तन के लिए, जगत
'यहाँ से बोधामृत भाग - २ (श्री.रा.वचनामृत विवेचन) का प्रारंभ होता है।