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साधना पथ केवलज्ञान की प्राप्ति श्रद्धा से हुई तो अब वही स्वरूप का विचार करता है। इच्छा भी सतत उसी की रहे। सम्यक्त्वी को संसार की कुछ भी इच्छा नहीं होती। एक शुद्धात्मा का विचार और उसी की इच्छा रहती है। शुद्ध निश्चयनय से तो सर्व आत्मा में केवलज्ञान है। इस तरह अलग अलग रीति से केवलज्ञान की भावना होने से परिणामतः सर्व दुःखों का अन्त हो कर आत्मा को अनन्त अविनाशी शाश्वत सुख प्राप्त होता है, वह जिस सत्पुरुष के वचनों से जीव पल भर में पाने लायक बना, जिस सत्पुरुष के वचन बल से समकित हो कर केवलज्ञान को पाने योग्य जीव बना, ऐसे परम पूज्य सत्पुरुष के अनुपम उपकार को सर्वोत्कृष्ट भक्ति से बारंबार नमस्कार हो! नमस्कार हो! श्री.रा.प.-५०५
(१२५) बो.भा.-२ : पृ.-१७१ वीतराग के मार्ग की श्रद्धा करनी है। राग-द्वेष-मोह आदि छूटें तब वीतराग बने। भगवान की आज्ञा का आराधन होगा तब छूटे। क्रोध, मान, माया, लोभ से जीव को रहित करें वह वीतराग मार्ग है। परम शांति का रस जीव को आना चाहिए। समभाव, शांत रस है। उपशमता, वीतरागता इस काल में दुर्लभ हैं। सुखी बनना हो तो वीतराग मार्ग का सेवन करो। छूटने का उपाय वीतराग मार्ग बिना जाना नहीं जा सकता। समझ आना कठिन है। योग्यता आएँ तो समझे। जीव की योग्यता हो और सत्पुरुष का योग हो तो सच्ची समझ आती है। कभी जीव की योग्यता होती है, तो सत्पुरुष का योग नहीं मिलता और कभी सत्पुरुष मिलते हैं, तो जीव की योग्यता नहीं होती। इस तरह अनन्त काल से होता आया है। इसलिए अनन्त काल से जन्ममरण चालू है। ये दोनों योग एकसाथ न मिलने से परिभ्रमण हुआ है। ये दोनों न मिले तब तक सम्पूर्ण हित नहीं होगा। दोनों योग मिलें तब छुटकारा होता है। त्याग-वैराग्य चाहिए। ज्ञानीपुरुष संसार को रोगरूप जानते हैं। दूसरे रोग तो मिट जाएँ, ज्यादा रहें तो आयु तक रहे परंतु यह संसार रोग तो अनादि से अनन्त काल होने पर भी मिटा नहीं। संसाररूपी रोग मुझे लगा हुआ है, ऐसा दुःख लगेगा तब सत्पुरुष की