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साधना पथ
१८१ परमार्थ मार्ग इससे उल्टा है। लौकिक भाव छोड़कर आगे बढ़ना है, अन्यथा सत्संग नहीं होता। लोक मूके पोक मुझे अपनी आत्मा का करना है। प्रभुश्रीजी कहत थे कि भालों की बरसात बरसती हो तो भी सत्संग करना और मोती की बरसात हो तो भी कुसंग नहीं करना। निवृत्ति काल और निवृत्ति क्षेत्र हो, उस समय में जीव को सत्पुरुष का योग रहै तो पर भव में भी साथ आता है। ___एनु स्वप्ने जो दर्शन पामे रे, तेनुं मन न चढ़े बीजे भामे रे।'
महापुरुषों का थोड़ा भी सत्संग हो तो बहुत शान्ति होती है। सत्संग हो और बोध हृदय में वसे तो फिर समकित होने में देर नहीं लगती। गुरुगम चाहिए। आत्मा को लाभ होता हो तो लोग कुछ भी कहते रहें, आत्मा का काम कर लेना चाहिए। निवृत्ति में लाभ हुआ हो तो मरते समय भी याद आएँ। श्री.रा.प.-७५१
(१३९) बो.भा.-२ : पृ.-३१२ - पूज्यश्री:- आत्मसिद्धि में तीन प्रकार के समकित कहे हैं:'स्वच्छन्द मत आग्रह तजी, वर्ते सद्गुरुलक्ष;
समकित तेने भाखियुं, कारण गणी प्रत्यक्षा' १७ आ.सि. 'वर्ते निज स्वभाव नो, अनुभव लक्ष प्रतीत;
वृत्ति वहे निजभावमां, परमार्थे समकिता' १११ आ.सि. 'वर्धमान समकित थइ, टाळे मिथ्याभास;
उदय थाय चारित्रनो, वीतरागपद वास।' ११२ आ.सि. - पहले समकित में जो सद्गुरु का बोध हो, उसकी प्रतीति होती है। बाद में उसका विचार करें, वह पहला समकित है। आज्ञा की अपूर्वता और आप्त पुरुष की भक्ति, यह भी पहला समकित है। इसमें ज्ञानी की आज्ञा में ही मेरा कल्याण है, ज्ञानी मुझे जो आज्ञा करें, वही मुझे करना है। इस तरह आज्ञा की अपूर्वता होती है। अपनी इच्छा से स्वछंदता को छोड़कर ज्ञानी की आज्ञा में रहना, वह प्रथम समकित है।