Book Title: Sadhna Path
Author(s): Prakash D Shah, Harshpriyashreeji
Publisher: Shrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap

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Page 213
________________ (२००) साधना पथ त्याग में छूट रखी हो, तथापि ज्ञानी की आज्ञा से उपयोग में लेना । कभी कभी अच्छे भाव आते हैं तो त्याग होता है, पर जीव बाद में ढ़ीला हो जाता है। श्रावक अर्थात् जिसे मुनि बनने की भावना है। साधुता पालने की शक्ति मेरे में नहीं, अतः मैं श्रावक हूँ। भावमुनि ऐसे रहते हैं। श्रावक रोज सुबह उठ कर विचार करे कि मैं पाँच महाव्रत कब प्राप्त करूँगा? पाप से मैं कब छूदूँगा ? मुझे समाधि मरण करना ही है। ये तीन मनोरथ रोज चिन्तन करे | आरम्भ अर्थात् जिसमें पाप हों ऐसे काम। मेरा-मेरा यह परिग्रह है । माया शल्य, मिथ्यात्व शल्य और निदान शल्य ये तीन शल्य हैं। इनमें से एक भी हो, तो सच्चा व्रत नहीं होता । श्रावक धर्म पालना मोक्ष का मार्ग है । पर मायाचार करने वाले के व्रत नियम सही नहीं होते । सच्चे धर्म की आराधना करनी हो, तो मायाचारसे दूर रहना । आत्मा के लिए सब करना है। मायाचार से लोग धर्म करते हैं, इससे धर्मकी निन्दा होती हैं। छूटना हो तो यह सब छोड़ना है। साथ में कुछ नहीं आता । शुभाशुभ भाव भी छोड़ना है। कर्म को छोड़ने जाएँ तब कोई न कोई कर्म सामने (बीच में) आता है। ज्ञानी पुरुषों का उपदेश है कि माया से ठगे नहीं जाना । अहंकार भी. साथ में झट झट खड़ा हो ऐसा है। माया को जीतने के लिए भक्ति चाहिए। भक्ति हो, तो माया नहीं होती । भक्ति में चित्त रहे तो जीव माया में नहीं जाता। भक्ति में तो दीनता है। भगवान सर्वोपरी है। मैं दीन हूँ, यों होता है। सच्ची भक्ति हो, वहाँ माया नहीं होती । श्रवण करना, भक्ति है। दासत्व भाव भी भक्ति है । आज्ञा में अहंकार नहीं है । राग-द्वेष टालने, इच्छाओं को रोकने के लिए तप करना । जनक विदेही राजपाट करते हुए. भी गुरु में भक्ति वाले थे और अलिप्त थे । आत्मज्ञान हो तो सब सहज हो जाएँ। जब तक ज्ञानी को मन-वचन-काया से अर्पण न हो तब तक ममत्व नहीं जाता। काया भी मेरी नहीं तो फिर अहंकार किस बात का ? मैं देह से भिन्न हूँ, इतनी समझ

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