Book Title: Sadhna Path
Author(s): Prakash D Shah, Harshpriyashreeji
Publisher: Shrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap

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Page 218
________________ २०५, साधना पथ अर्पण करके मन, वचन, काया सब अर्पण करके, फिर ज्ञानी की आज्ञा में ही रहे तो संसार रहता नहीं। 'यह देहादि आज से वर्ते प्रभु आधीन।' विनय समझे तो भाग्यशाली कहलाएँ। एवो मार्ग विनय तणो, भाख्यो श्री वीतराग; मूळ हेतु ए मार्गनो, समझे कोई सुभाग्य। २० आ.सि. 'उत्तराध्ययन सूत्र' में पहला अध्ययन विनय नामक है। विनय करने से लब्धि प्रगट होती है। धर्म में मतभेद डालने वालों की बुरी गति होती है। मरण को जीव भूल जाता है, इस से बारंबार शास्त्र में कहना पड़ा है की प्रत्यक्ष दूसरों को मरते हुए जीव देखता है, तथापि मृत्यु को भूल जाता है। श्री.रा.प.-९५८(१) (१५४) बो.भा.-२ : पृ.-३९३ अज्ञान भाव सारे संसार का मूल है। वह यदि छिन्न हो जाएँ तो मोक्ष हो जाएँ। स्वरूप का भान नहीं। घर मेरा, शरीर मेरा, इस तरह पर को अपना माने वह मिथ्यात्व या अज्ञान है। पर के द्रव्य-गुण-पर्याय को अपना मानता है। जड़ और चेतन इसके भाव में दोनों एकरूप हो गए हैं। इसका भेद पड़े तो ग्रन्थि-भेद सम्यक्ज्ञान हो। ग्रन्थि है पर जीव को चुभती नहीं। अज्ञान भाव पलटे तो ग्रन्थिभेद हो। अज्ञान, भ्रान्ति यही महा मोह है। ग्रन्थिभेद होते समय कई बार साधक गिर जाते हैं। इस से आगे बढ़े तो मोक्ष हो। वहीं का वहीं रहे और धक्का मारने वाला न रहे, तो आगे नहीं बढ़ता। अतः वापिस गिर जाता है क्योंकि अनादि का अभ्यास है। उस समय मोह जोर करता है। जिस तरह दीपक बुझते समय भभक दिखती है, वैसे ही मोह भी जाते जाते जोर कर के जाता है। ग्रन्थिभेद के नजदीक आकर भी जीव वापिस मुड़ जाता है। ग्रन्थिभेद होने को आए तब जीव वापिस हो जाता है। 'प्रेरक अवसर जिनवरु, सखी देखण दे; मोहनीय क्षय जाय रे, सखी देखण दे।'

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