Book Title: Sadhna Path
Author(s): Prakash D Shah, Harshpriyashreeji
Publisher: Shrimad Rajchandra Nijabhyas Mandap

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Page 201
________________ साधना पथ एक पुरोहित था। वह शास्त्र पढ़ा हुआ था। पर कषाय मंद नहीं थे। वह रोज राजा के साथ घूमता था। राजा ने उसे अपनी अंगूठी रखने को दी। वह पुरोहित वापिस देने को भूल गया। संध्या काल में सरोवर के किनारे अंजलि देते अंगूठी सिरक गई। वह नीचे कमल में पड़ी, पर ब्राह्मण को पता न लगा। घर जाने बाद अंगूठी न देखकर चिन्तित हो गया। खोजने पर भी न मिली। राजा का भय सताने लगा। बहुत विचार करने पर भी अंगूठी का पता न मिला। अन्त में उसे पता लगा कि कोई जैन साधु यहाँ आएँ हैं। वह वहाँ गया और कहा कि साहेब! मुझे काम है। मुनिने भव्य जीव जानकर कहा कि बोलो क्या काम है? उसने अंगूठी की बात की। मुनि ने कहा कि सरोवर में अंजलि दी थी, वहीं कमल में पड़ी हैं। सुबह कमल खुले तब जा कर देख लेना। तदनुसार अंगूठी मिल गई। वह लेकर राजा को दे आया। यह एक चिन्ता मिटी, किन्तु यह विद्या मेरे पास नहीं। मुझे यह विद्या सीखनी है। सीधी तरह न सिखाएँ तो कपट से भी सीखनी है। वह घर गया और कहा कि मैं विद्या लेने जा रहा हूँ। मुनिराज मुझे साधु बनने को यदि कहें तो मैं साधु भी बन जाउँगा। फिर विद्या सीख कर वापिस आ जाउँगा। गया मुनि के पास। मुनि ने दीक्षा दे दी। वह . शास्त्राभ्यास करने लगा। थोड़े वर्ष बीतने पर मुनि ने पूछा, 'घर जाना है?' “अब कौन जाएँ, यहीं आनन्द है," पुरोहित ने कहा। सत्पुरुष का योग हो तो अच्छी वस्तुएँ ग्रहण करें और खोटी वस्तु छोड़ दे। मुनि के लिए भी कुछ आहार के नियम हैं। निर्दोष आहार से कषाय मंद होते हैं। वर्तमान में मुनिओं के कषाय का कारण यही है कि भगवान की आज्ञा का पूरी तरह पालन नहीं होता। जैसा अन्न, वैसा मन। बाह्य परिग्रह धन धान्य है। चार कषाय, नव नो कषाय और मिथ्यात्व ये चौदह अभ्यन्तर परिग्रह हैं। “क्यारे थईशुं बाह्यांतर निग्रंथ जो?” मिथ्यात्व और कषाय के कारण संसार है। ये जाएँ तो संसार न रहे। श्री.रा.प.-८८२ (१४६) बो.भा.-२ : पृ.-३६२ सत्पुरुष के वचन आत्मा को शुद्ध करने में अवलंबन हैं। प्रथम काम - है, अपने स्वरूप को न भूलना। ज्ञानी को मन-वचन-काया के योग प्राप्त

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