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- साधना पथ तीनों काल में बदले नहीं वह सिद्धांत बोध है। जितना त्याग-वैराग्य होगा, उतना समझ आएगा और समकित होगा। मिथ्यात्व अनादि काल से जीव को उल्टा समझाता है। विपरीत बुद्धि उपदेश बोध बिना जाती नहीं। अतः ज्ञानीपुरुष के कहने का आशय लक्ष्य में नहीं आता। जीव कर्मों से घेरा हुआ है। जिसे मोक्ष जाने की भावना है, वह पाँच इन्द्रियों के विषयों में लिप्त नहीं होता। अपना मूलस्वरूप विचार कर प्राप्त कर लेना है। जैसा है, वैसा समझ लेना है। जीव मोह का गुलाम होने से मोह में लुब्ध रहता है। तुच्छ वस्तु में आनन्द माने, तो सच्ची वस्तु हाथ में नहीं आती। यह विपरीतता मिटाने का उपाय त्याग, वैराग्य और उपशम है। जीव की योग्यता बढ़े, संसार दुःखरूप लगे, इसके लिए उपदेश बोध है। इसके बिना जीव आगे नहीं आ सकता। पात्रता बिना समझ नहीं आती। ‘पात्र थवा सेवो सदा ब्रह्मचर्य मतिमान।' विचार ही नहीं आता। सच्चे स्वरूप का विचार नहीं आता। त्याग-वैराग्य भी साधन है।
उपदेश बोध बिना सिद्धान्त बोध नहीं होता। जीव की बुद्धि संसार में है। संसार में ही अनुकूलता खोजता है। मुख्य तो देहभाव ही आगे रखता है। संसार से थके तो परमार्थ की अपूर्वता लगे। उपदेश बोध से विपर्यास (विपरीत) बुद्धि मंद होती है। जिसे गाढ़ विपर्यास है, उसे तो ज्ञानी क्या कहें? वैराग्य-उपशम चाहिए। वह होगा तो ही छूटने की भावना होगी। विपर्यास बुद्धि गए बिना स्पष्ट स्वरूप समझ में नहीं आता। 'मैं और मेरा' करता रहता है। यह ही मोह है। वैराग्य उपशम से विपर्यास बुद्धि कम हो।
जिसे वैराग्य हो, उसे परिग्रह बढाने का मन नहीं होता। जिसे उपशम हो, उसे कषाय भाव नहीं होता। वैराग्य-उपशम हो तो विपर्यास बुद्धि दूर हो कर सद्बुद्धि आती हैं। अहंभाव, ममत्वभाव जाएँ तो उपशम आएँ, फिर कषाय मन्द पड़ें। सत्ता में कषाय रहे पर काम न करें। उपशम समकित भी क्षायिक जैसा है। दो घड़ी रहता है पर क्षायिक जैसा ही निर्मल है। उपशमभाव अर्थात् कषाय रहित भाव लाना है। जो कषाय पर जय पाएगा, उसका कल्याण होगा।