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साधना पथ का अभ्यास और सत्संग करने योग्य है। अन्य कोई कल्पना न करना, उस से कल्याण नहीं होगा। ___"शांत सुधारस" में से बारह भावना का चिंतन करना। छःपद में सम्यक्दर्शन रहा हुआ है। श्रीज्ञानीपुरुषों ने सम्यक्दर्शन के मुख्य निवास भूत ऐसे छःपद यहाँ संक्षेप से बताएँ हैं। श्री.रा.प.-३३१ . (१११) बो.भा.-२ : पृ.-७९
विनयभाव रखना। संसार के स्वार्थ की इच्छा न रखना। 'त्याग विराग न चित्तमां, थाय न तेने ज्ञान'। सम्यक्दर्शन प्राप्त करना हो तो अन्य भाव छोड़ने पड़ेंगे। संसार में मुझे पैसा मिले तो मैं सुखी होऊँ, भ्रान्ति में सुख की कल्पना की है। जब तक संसार प्रिय लगता हो, तब तक मोक्ष की महत्ता नहीं लगती। सत्संग सर्वोपरि वस्तु है, माहात्म्य लगा नहीं। धन, कुटुम्बादि पर जितना प्रेम आता है उतना प्रेम सत्संग पर, आत्मा पर आएँ तो काम हो जाएँ। तब तक अप्रमत्त भाव से पुरुषार्थ करना है। जीव के पास प्रेम रूपी मूड़ी है, वह संसार में बाँट देता है। वह यदि मोक्ष में जोड़े तो कल्याण हो जाए। 'पर प्रेम प्रवाह बढ़े प्रभुसे'। जगत में मेरा कोई नहीं हैं। श्री.रा.प.-३८३
(११२) बो.भा.-२ : पृ.-९२ .. क्लेशित भाव होने का कारण पर वस्तु को अपनी मानना है। पर वस्तु को मेरी माने तो क्लेश हो। और मेरी न माने तो क्लेश न हो; तो यह ही समाधि है। आत्मा तो परमानंद सुख-स्वरूप है, उसी में रहे तो क्लेश नहीं, क्योंकि क्लेश का कारण कुछ रहा नहीं। कर्म पर हैं; संसार क्लेशरूप
और आत्मा परमानंदरूप है ऐसा जिसे प्रतीत हुआ उसे भेदज्ञान है। प्रारब्ध तो ज्ञानी को भी भुगतना पड़ता है। क्षायिक सम्यकदृष्टि को यह संसार त्रिकाल में असार ही दिखता है। ज्ञानीपुरुष हो सके उतने कर्म तो ज्ञानध्यान से क्षय करते हैं, किन्तु जो कर्म रहते हैं, वे तो भुगतने ही पड़ते हैं। श्री.रा.प.-३८४
(११३) बो.भा.-२ : पृ.-९२ .. इस काल को कलियुग कहने का कारण क्या? इस काल में मुश्किल से धर्म प्राप्त होता है। धर्म प्राप्त न होने में पंचेन्द्रियों के विषयों में