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साधना पथ जाने से सत्संग का रंग जो चढ़ा है वह चला जाता है। ज्ञानी के वचन सुनने में बहुत लाभ है। कृपालुदेव के वचन तो हितकारी ही है, पर मोक्षमार्ग में ज्ञानी की आज्ञा से चढ़ना चाहिए। पकड़ होना मुश्किल है। जैसी पकड सत्पुरुष के योग से हो, वैसी पुस्तकों से नहीं होती। यह तो मैं जानता हूँ, ऐसा हो जाता है। आत्मा की दृष्टि बदलनी चाहिए और वह ज्ञानी के यथार्थ योग बिना नहीं बदलती। सुने, तो कुछ समझ लगे, समझे तो फिर कुछ विचार करें। “श्रवणे नाणे विनाणे।" विज्ञान हो। आत्मा गुरुगम बिना हाथ नहीं आता। जड़ जड़ और चेतन चेतन ही रहता है। एकमेक नहीं होता। आत्मा अजर-अमर है। कर्म न बांधने का पुरुषार्थ करना। संसार का डर लगे, तो नया कर्मबंध न हो। कर्म उदय में आयेंगे परन्तु पुनः नया कर्म बाँधे तो न छूटे और न बाँधे तो सम्यक्दर्शन हो, केवलज्ञान हो, मोक्ष हो, सब हो। सम्यक्दर्शन के लिए, दर्शनमोह क्षय के लिए, यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, अन्तर करणरूप श्रेणी में जीव जैसा पुरुषार्थ करता है, वैसे का वैसा पुरुषार्थ जीव करता ही रहे तो थोड़े काल में मोक्ष हो जाएँ। यदि शिथिल हो जाएँ तो एक भवमें या तीसरे भवमें मोक्ष जाएँ, इससे ज्यादा शिथिल हो तो पन्द्रह भव में तो जरुर मोक्ष में जाए। और यदि सम्यक्दर्शन को छोड़ दे तो उससे बढ़ते बढ़ते काल में या आखिर अर्धपुद्गल परावर्तन में तो मोक्ष हो ही। हमें निवृत्तिद्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव के प्रति भाव करना, वह मिले तो आत्मा का काम कर लेना। श्री.रा.प.-४७३
(१२२) बो.भा.-२ : पृ.-१४७ . जैसा प्रसंग मिले, वैसा जीव हो जाता है। अनेक प्रकार के विकल्प जीव को होते रहते हैं। मन को खाली न रखें। वांचन, स्मरण, स्वाध्याय आदि किसी में लगे रहे। अन्यथा कैसे कर्म बंध हो कुछ कहा नहीं जा सकता। ज्ञानी के वचनों में चित्त रहे तो धर्मध्यान हो, वर्ना आर्तध्यान तो होता रहे, उससे कर्मबंध होता रहे। खाली मन में अनेक विकल्प उठते हैं। काम हाथ में हो तो उस में चित्त रहता है। मन बहुत चंचल है, इसे कुछ