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साधना पथ रखें कि ज्ञानी को ठग कर, मेरा काम करा कर जाता रहूँ, तो यह अनंतानुबंधी माया है। लोगों से प्रशंसा करवाए, ज्ञानी से संसार की वस्तु की इच्छा रखें तो अनंतानुबंधी लोभ है। जीव वस्तुतः जानता नहीं पर 'मैं जानता हूँ' यह उसे रहा करता है। मोक्ष को यह समझा नहीं, समझे तो मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करें। जीवको रूपी पदार्थ की महत्ता है। मोह का यह सब खेल है। _ 'जाण्युं तो तेनुं खलं, जे मोहे नवि लेपाय, सुख दुःख आव्ये जीवने, हर्षशोक नवि थाय।' जब तक मोह या हर्षशोक है, तब तक सत्य रीति से नहीं जाना। मैं कुछ नहीं जानता, यह दृढ़ निश्चय करें, बदल जाय ऐसा नहीं करें, तो मोक्ष सरल है, सुगम है। पर मैं कुछ नहीं जानता, यह जीवनमें लाना कठिन में कठिन है। यही जीव का कर्तव्य है।
प्रभु वीर ने जो उपदेश दिया, वह बारह अंगों में संग्रह करने में आया। उन सब का सार है कि मैं कुछ नहीं जानता, यह दृढ़ करके ज्ञानी की शरण में जाएँ तो जरूर मार्ग की प्राप्ति हो। आत्मज्ञान पाकर के ज्ञानी ने यह वचन कहा है। प्रभुश्रीजी चश्मा लेकर कहते थे, 'यह आत्मा!' सत् तो हर जगह है, पर जीवको दृष्टि चाहीए न? कठिन से कठिन पुरुषार्थ यह है कि 'मैं कुछ नहीं जानता'। मैं जानता हूँ, मैं समजता हूँ, यों मानता है, पर मैं कुछ नहीं जानता, ऐसा बनना दुर्लभ है। सरल जीवों का काम हो जाएगा, पण्डितों को अटकना पड़ेगा। हकीकत में जीव नहीं जानता, अगर जानता था तो ज्ञानीको उससे कुछ नहीं छुड़वाना है। मैं नहीं जानता यह सूत्र जीव के जीवन में आयें तो वह सत्य आया कहलाएँ। पत्र तो ऐसा सरल दिखता है कि हम समज गएँ, पर कृपालुदेव कहते हैं कि आप नहीं समजे, इसे समजने के लिए बहुत पुरुषार्थ की जरूरत है। जीव अनादि से भ्रान्ति में पड़ा है, उस भ्रान्ति को टालने के लिए ज्ञानी की शरण में जा। इन्द्रियाँ और मन रोके बिना छुटकारा नहीं, इन्हें रोके बिना आत्मा तरफ दृष्टि ही नहीं जा सकती। ज्ञानी मिले, ज्ञानी का बोध मिले, फिर श्रद्धा होने पर इसकी दृष्टि बदलती है।