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साधना पथ “जड़ ने चैतन्य बन्ने द्रव्यनो स्वभाव भिन्न सुप्रतीतपणे बन्ने जेने समजाय छे; . स्वरुप चेतन निज, जड़ छे संबंध मात्र, अथवा ते ज्ञेय पण परद्रव्यमांय छे; एवो अनुभवनो प्रकाश उल्लसित थयो, जड़थी उदासी तेने आत्मवृत्ति थाय छे; कायानी विसारी माया, स्वरूपे समाया एवा,
निर्ग्रन्थनो पंथ भवअन्तनो उपाय छ।" १ इसमें सारा मोक्षमार्ग कह दिया है। जड़ वह जड़ और चेतन वह चेतन लगे। देह में खुश न हो, उदास हो तब आत्मवृत्ति हो। यही करना है।
"देह जीव एकरूपे भासे छे अज्ञान वडे, क्रियानी प्रवृत्ति पण तेथी तेम थाय छे; जीवनी उत्पत्ति अने रोग, शोक, दुःख, मृत्यु, देहनो स्वभाव जीव पदमां जणाय छे; एवो जे अनादि एकरूपनो मिथ्यात्वभाव, ज्ञानीनां वचन वड़े दूर थई जाय छे; भासे जड़ चैतन्यनो प्रगट स्वभाव भिन्न, बन्ने द्रव्य निज निज रूपे स्थित थाय छे।” २
- श्रीमद् राजचंद्रजी जीव उत्पन्न नहीं होता, जगह बदलता है। रोग, शोक, दुःख, मृत्यु ये सब देह के स्वभाव हैं। रोग हो तो शरीर में, मृत्यु हो तो वह भी शरीर का ही धर्म है। आत्मा मरता नहीं। जीव पद में अथवा ज्ञान पद में यह सब पता लगता है। जीव जड़ नहीं हो जाता, परंतु इसे देह का स्वभाव अपना लगता है। पर वस्तु के निमित्त से अपने में कल्पना कर के सुख-दुःख मानना, मिथ्यात्व है।