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साधना पथ रूप है। जिसे भूल लगे उसे अपने स्वरूप का ख्याल आता है और तब से सच्चा श्रावक या साधु है। भूल जानकर मन में विचार आएँ कि यह दोष है तो उसे निकाल दे। पर ऐसा निश्चय हुआ नहीं। जो जो वस्तु इसे मिलती है उसमें ममत्व करता है। सच्चे सुख की भावना भी नहीं की। अपनी भूल दिखनेमें आई नहीं और दिखती भी नहीं। कर्म हैं सो दुःख रूप हैं। जीव मुँह से यों कहता है कि मैं दुःखी हूँ, पर उसे समझ नहीं कि वास्तविक दुःख मुझे क्या है? संसार के सुख को सुख मानता है और उसी की इच्छा करके दुःखी होता है।
जिसे मोक्ष की इच्छा हो उसे संसार के प्रति अभाव होता है। संसार में जीव गलत रास्ते पर है। सच्चे मार्ग की शुरुआत में धर्मध्यान कठिन लगता है। आत्मा तरफ मुड़ना मुश्किल हो गया है। जीव विषयों में लीन है। आत्मा सुख स्वरूप है, ऐसा यदि जीव अभ्यास करे तो फिर मन दूसरे में नहीं जाएगा। सत् वस्तुमें मति यानी बुद्धि की पहूँच नहीं। “सत् है, वह भ्रान्ति नहीं। भ्रान्ति से केवल व्यतिरिक्त (अलग) है। कल्पना से पर है।" (श्री.रा.प.२११) ज्ञानी ने आत्मा को जाना है वह सत् है। दूसरी इच्छा मत करना, तभी समझ आएगी। जीव को कल्पित वस्तु की महत्ता लगती है, अतः आत्मा दिखती नहीं।
प्रश्नः- सम्यकदर्शन कब हो?
पूज्यश्रीः- 'मैं देह से भिन्न हूँ' ऐसा लगे तब। जैसे संयोग मिलें वैसा ही जीव हो जाता है। मैं बनिया, मैं ब्राह्मण, इस तरह संयोगानुसार स्वयं को मानता है। केवलज्ञान कोई दूर नहीं, पास ही है, भरत चक्री को अन्यत्व भावना का विचार करते ही केवलज्ञान हो गया था। 'मैं और मेरा' यह संसार का स्वरूप है। लाखों रुपये देने से भी जो न मिले, ऐसा मानव भव मिला है। निर्ग्रथता, निरहंकारता आए तब जीव का कल्याण हो। पाँच इन्द्रियाँ शत्रु जैसी है। कोई भी पर वस्तु के प्रति महत्ता न रहे, तो रागद्वेष न हो। फिर कर्म बंध भी न हो। स्वरूप समझे तब समकित होता है।