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साधना पथ
"भवभीत भविक जे भणे भावे, सुणे-समझे-सद्द हे,
श्री रत्नत्रयनी ऐक्यता लही, सही सो निज पद लहे।" आत्मा के गुणों की और लक्ष्य रखना हैं। भगवान के माता-पिता थे, वे आत्मा थे। संसार दृष्टि नहीं रखना।
(४३) बो.भा.-१ : पृ.-१२३ परमात्म स्वरूप में जितनी लीनता हो, उतना संवर होता है। भरत चक्री जब युद्ध करते थे, तब पुण्डरीक गणधर ने भगवान ऋषभदेव से प्रश्न किया कि भरत के परिणाम कैसे हैं? भगवान ने कहा तेरे जैसे । लक्ष्य संसार से छूटने का था। जिसमें राग-द्वेष नहीं उनमें वृत्ति रहे तो राग -द्वेष न हो, यह काम भरत चक्रवर्ती करते थे।
एक भाई:- मोह कम करना हो तो संभव है, लड़ाई न करनी हो तो न हो; पर लड़ाई करते हुए भी भरत महाराजा अकर्ता क्यों कहे जाते हैं?
पूज्यश्रीः- भरत लड़ाई करते थे, पर उनका चित्त तो भगवान ऋषभदेव में ही था। ऋषभदेव भगवान जब दीक्षा लेने को तैयार हुए, तब भरत ने कहा 'मैं भी दीक्षा लूँगा।' भगवान ने कहा "ये युगलिएँ अभी ही तैयार हुए हैं, यदि राजा न होगा तो लड़ मरेगें, अतः तूं राज्य कर। तुम्हारा यह प्रारब्ध है और मेरा दीक्षा लेने रूप प्रारब्ध है।" इस तरह पिता के वचनानुसार भरत महाराजा सेवक रूप में रहे थे। छः खण्ड का राज किया, आज्ञा में रहे और वृत्ति भगवान में रखी, तो कर्म क्षय हो गये। यह मुनियों से भी अधिक पुरुषार्थ है। ऋषभदेव प्रभु एक हजार वर्ष छद्मस्थ अवस्था में विचरे थे और भरत चक्रवर्ती को तो गृहस्थावास में ही केवलज्ञान हो गया था ।
(४४) बो.भा.-१ : पृ.-१२५ धर्म का फल क्या? शांति। "हे आर्य! द्रव्यानुयोग का फल सर्व भाव से विराम पाने रूप संयम है।" (श्री.रा.प. - ८६६) यही धर्म का फल है। ज्ञानी पुरुष और ज्ञानी पुरुष के आश्रित, दोनों अलौकिक भाव में रहते