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साधना पथ कारण, यह अल्प परिग्रह ही था। अल्प परिग्रह भी जीव को कितनी अशांति पहुँचाता है? इस वस्तु को देखते जहर से भी ज्यादा भय लगना चाहिए। जैसे सर्प को देखते भय लगता है, वैसे परिग्रह को देखते भय-त्रास लगना चाहिए।
(६०) बो.भा.-१ : पृ.-१८७ सब स्वप्न सम है। आज है वह कल नहीं। जब तक जीना है, तब तक आत्मा का काम कर लें। परमकृपालुदेव के कथन को समझ लेना चाहिए। सत्पुरुष के योग का लाभ मिला है। उसे बारम्बार याद करना। इस भव में यह योग मिला है, वह जैसा-तैसा नहीं है। लक्ष्य रखना है। ज्ञानी का योग हुआ वह सफल हो, वैसा करना है। मंत्र, आत्मा है। ऐसा वैसा नहीं है, बीज है, उसका पोषण करना है। भूला वहाँ से फिर गिर्ने। धर्म का फल बहुत मीठा है। मृत्यु के समय मंत्र बहुत काम आएगा। अतः आराधना करना। ज्ञानी की आज्ञा का पालन करते हुए शरीर छोड़ना है।
खंभात में त्रिभोवन भाई का शरीर अस्वस्थ था। तब मन में वे विचार करते कि यह शरीर छूट जाएगा, मुझे क्या करना है? सत्संग का योग नहीं है। तब मैं वहाँ गया। उसने मुझे पूछा :- 'मैं क्या करूँ?' “परमगुरु निर्ग्रन्थ' जपु या “आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे" जपुँ? उसे कृपालुदेव से मंत्र नहीं मिला था। तब मैंने प्रभुश्रीजी का कहा हुआ “सहजात्मस्वरूप परमगुरु" जपने को कहा। तब वे बोले, “यह तो कृपालुदेव मेरे लिए ही लिख गए हैं।" मरते दम तक उस भाई की वृत्ति इसी में रही।
(६१) बो.भा.-१ : पृ.-१८७ अन्य काम तो जीव करता है, भक्ति का काम नहीं करता। भक्ति के संस्कार ऐसे वैसे नहीं। असली बीज हो तो पलटे नहीं। महापुरुष का परिचय हो तो किसी दिन ठिकाना पड़े। यथातथ्य पहचाने तो सम्यक्त्व होता है। सच्ची वस्तु के प्रति अनादि काल से जीव द्वेष करता आया है।