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साधना पथ आग्रह मिथ्या-दर्शन है। जो प्रयोजनभूत नहीं उसे न जानें या मिथ्या जाने तो हानि नहीं, परन्तु प्रयोजनभूत को यथार्थ जानें तो सम्यग्दर्शन हो। सम्यग्दर्शन हो तो सुखी हैं। द्रव्यलिंगी मुनि ग्यारह अंग पढ़ जाएँ तो भी उन्हें सम्यग्दर्शन नहीं होता, देहाध्यास नहीं छूटता। और तिर्यंच को भी "देह से मैं भिन्न हूँ," ऐसी श्रद्धा हो तो सम्यग्दर्शन होता है। जीव को ज्ञान के क्षयोपशम मात्र से नहीं, परन्तु दर्शनमोह जाने से सच्ची श्रद्धा होती है, तभी सम्यक्दर्शन होता है।
देहभाव के पोषण के लिए कुछ न करना, देह भाव छोड़ना है। शरीर से भक्ति का काम करा लेना। 'मोक्षमाला' मुखपाठ करने जैसी है, मोक्ष का बीज है। जगत के भाव में से वृत्ति उठा लेनी। जिसे आग्रह हो, उसे सच्ची वस्तु हाथ नहीं आती, अंतरंग जिसका स्वच्छ हो, उसे मिलती है। अपने भाव सुधारना। सच्चा त्याग तो अंतर त्याग है। जिस वस्तु का मन में से भाव उठ गया हो, उतना उसका त्याग हुआ। बाह्य त्याग भी अंतर त्याग होने के लिए है। जब तक बाह्य त्याग न हो तब तक (नहीं त्यागी वस्तुओंकी) इच्छा रहती है। इससे जहाँ जहाँ वस्तु तैयार होती हो, वह सब पाप अपने को भी लगता है। ज्ञानी का कथन सत्य मानना, तभी छूटोगे। अपनी बुद्धि आगे न करना।
गच्छ-मत का कारण अज्ञान है। जब तक मिथ्यात्व, अज्ञान और अहंभाव-ममत्वभाव है तब तक सच्ची साधुता नहीं गिनी जाती। मात्र वेष से साधुता नहीं गिनी जाती। यह हुण्डावसर्पिणी काल है। धर्म में बहुत विघ्न आते हैं। मूल वस्तु पर लक्ष्य जाए उसे कोई झगड़ा नहीं। देखने योग्य तो एक आत्मा है। पर पंचात में पड़े तो हाथ नहीं आता।
(५४) बो.भा.-१ : पृ.-१३९ मिथ्यात्व को जाने तो मिथ्यात्व टले। उसका स्वरूप कहते हैं :
संसारी जीव अनादि काल से अनेक देह धारण करते हैं। देह में दो वस्तु है, एक जीव और दूसरा पुद्गल। जीव कर्म के निमित्त से शरीर की