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साधना पथ
(५१) बो.भा.-१ : पृ.-१३१ अपने दोष देखने में अपक्षपातता, इसका क्या अर्थ?
स्वयं क्रोध करता हो तो क्रोध को अच्छा न माने। दोष को गलत जाने और निकालने का प्रयत्न करे। स्वयं झूठ बोलता हो तो "मैं अकेला झूठ बोलता हूँ, जगत में बहुत लोग बोलते हैं।" ऐसा न करे तो अपक्षपातता है। ___ मैं दुःखी हूँ, मुझे मोक्ष की जरूरत है, ज्ञानी का कहा मुझे करना है, यह चित्त शुद्धि है। लौकिक भाव छोड़कर आत्मा को तारने का भाव, चित्त शुद्धि है। आत्मा में जैनत्व, विष्णुत्व, सांख्यत्व नहीं। आत्मा तक पहुँचना है। मुझे व्यवहार समकित है, ऐसा सोचके रुके न रहना। आत्मा कर्म से आवृत्त है, अतः प्रकट नहीं होता। सद्गुरु के वचन सुनना, मानना अर्थात् प्रतीति करना, यह व्यवहार समकित है। अंतरंग कर्म मार्ग देता है। सात प्रकृति जाएँ, तब निश्चय समकित होता है। अनंतानुबंधी अर्थात् सच्चे धर्म के प्रति अभाव। ज्ञानी कुछ कहे, तब क्रोध आएँ, “मैं समझता हूँ" ऐसा हो तो अनंतानुबंधी क्रोध और मान है, और उपर से “आप कहते हो वह ही मैं मानता हूँ" ऐसा बताना, यह अनंतानुबंधी माया है। धर्म करके मोक्ष की इच्छा न रखकर पुत्र, देवलोक आदि की इच्छा करे तो अनंतानुबंधी लोभ है। जिस तरह महापुरुष मोक्ष में गए, वह मार्ग अपना नहीं, नहानेधोने में ही धर्म माने तो मिथ्यात्व मोहनीय; गलत को माने और सच्चे को भी माने तो मिश्र मोहनीय। सच्ची वस्तु मान्य करने पर भी आत्मा ऐसा होगा या वैसा? किसी एक तीर्थंकर या एक प्रतिमा को विशेष मानना, इस तरह के जो भाव वे सम्यक्त्व मोहनीय के दृष्टांत हैं।
सब कर्मो में मोहनीय कर्म मुख्य है। जैसा कर्म का उदय हो, वैसा जीव होता है। मोह के कारण दुःख होता है। जीव को वस्तु पर मोह है, इसीलिए याद आती है। मोह, चिन्ता के कारण कर्म बंध होता है। आत्मा की विस्मृति न हो, यह याद रखें। पर वस्तु में जितनी आसक्ति होती है,