________________
साधना पथ
(३७) बो.भा.-१ : पृ.-९८ भगवान महावीर मिले तब गौतमस्वामी सब छोड़कर भगवान के पीछे ही पड़े। सत्पुरुष के सहवास में थोड़े प्रयास से बहुत लाभ होता है। अखंड रूप से भगवान में लय लगे तो सच्चा वैराग्य है। अपने को क्या विघ्नकर्ता है, यह विचारें। भगवान का जितना विस्मरण उतना अहित समझना।
(३८) बो.भा.-१ : पृ.-११४ गृहस्थ अवस्था में तो बहुत वीर्य हो, तो समभाव में रहा जा सकता है। गृहस्थ अवस्था में रहे सत्पुरुष को पहचानना बहुत मुश्किल है। वैराग्य हो तो पहचान होवें। आत्मा पहचानना है। जिसे आत्मा की पहचान हो गई हो, उसे फिर चाहे कैसा भी प्रबल कर्म उदय में आया हो तो भी वह तो समभाव में रह सकता है। मुमुक्षु ज्ञानी का अन्तर पहचानता है। सत्पुरुष गृहस्थ अवस्था में हो तब मुमुक्षु को माहात्म्य लगे कि इतनी सारी उपाधि होने पर भी आत्मा को निर्लेप रखता है। सत्पुरुषार्थ करना है। अनन्त काल से अपने स्वरूप को पहचाना नहीं, उसका विचारपूर्वक निर्णय करना, वह सत्पुरुषार्थ है। उसी से जीव का कल्याण होता है। ज्ञानी-पुरुष निष्कारण करुणा से जीवों को बोध देते हैं, तथापि जगत के जीवों को उनकी किंमत नहीं। ज्ञानी का एक वचन भी ग्रहण हो तो भी बहुत लाभ है। जिसे महापुरुष का, उसके वचनों का माहात्म्य नहीं, उसका कल्याण नहीं। भगवान के पंच कल्याणकों में पूजने योग्य तो आत्मा ही है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप पूज्य है। ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि संसार का कारण, जीव के दोष है। ज्ञानी के पास वे दोष मिटाने के उपाय है। क्रोध-मान-माया-लोभ से छूटें, दोष जाएँ तो जीव सुखी हो। आत्मा को कषाय रूपी मैल चिपका है, वह साफ करना है। कर्मों से सिद्धावस्था रुकती है। ज्ञानी के वचन सुनने से अपने दोष दिखते हैं और छूटते हैं। सत्संग से बहुत लाभ है।