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साधना पथ जाए तो पुण्यानुबंधी पुण्य अर्थात् परंपरा से मोक्ष का कारण होता है। शुद्धभाव के लक्ष्य बिना जो क्रिया की जाती है, वह शुभभाव नहीं पर शुभ क्रिया है उसका फल संसार है।
जगत में कहीं भी रुचि करने जैसा नहीं है। जिसे अपने स्वरूप का ख्याल नहीं और जो अपनी इच्छानुसार चलता है, वह मिथ्यादृष्टि है। व्रतादि जो साधन करते हैं, वे आत्मा के लिए करना। आत्मा तीनों लोक में सार वस्तु है। आत्मा जैसी वस्तु अन्य कोई नहीं है। सत्संग में जो भी सुनने - पढ़ने को मिला हो उसे खूब विचारो।
मुमुक्षुः- विचारना किस तरह?
पूज्यश्रीः- अपनी शक्ति अनुसार, जो भी सुना या पढ़ा हो, वह याद करना और उसे अपने जीवन से मिलान करना। इसमें जो बात कही, वह मेरे में है या नहीं? इस में से मुझे क्या लेना है? क्या छोड़ना है? ऐसे विचार करने से स्वयं को उल्लास भाव आता है, उससे कर्म खपते हैं। वरना मात्र सुनता रहे तो सामान्य हो जाता है कि यह तो मैंने पढ़ा है, मुखाग्र है। सत्पुरुष के वचन क्षण क्षण में नवीनता धारण करते हैं। ज्यों ज्यों पढ़ें, विचारें, त्यों त्यों नवीनता लगती हैं। ___जीव को मनुष्यभव की महत्ता लगी नहीं। मानवभव की एक पल भी चिंतामणि रत्न समान है। एक पल में समकित हो सकता है, एक पल में चारित्र का उदय हो सकता है। एक पल में केवलज्ञान हो सकता है और एक पल में मोक्ष हो सकता है। ऐसी-ऐसी पलें मनुष्य भव में हैं। वे गँवाने जैसी नहीं है। यह भव संसार भोगने के लिए नहीं मिला, पर एक आत्मकल्याण करने के लिए मिला है। अनजानी जो आत्मा उसे जानना है। और पुद्गलादि जो जाने हैं, उन्हें नहीं जानना। आत्मा जैसा सारभूत पदार्थ कोई नहीं है। जिसे सत्पुरुष जैसे परमार्थ साधने के साधन मिले हैं, तथापि वह न जागे तो कब जागेगा? अतः जागो। सारा जगत नाशवंत वस्तुओं में आसक्त है, अविनाशी शुद्ध चैतन्य आत्मा को वह भूल रहा है। छः पद