Book Title: Sachoornik Aagam Suttaani 01 Aachaar Churni Aagam 1
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Param Anand Shwe Mu Pu Jain Sangh Paldi Ahmedabad

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Page 356
________________ आगम भाग-1 “आचार" - अंगसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], चूडा [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१०], नियुक्ति: [२९७...], [वृत्ति-अनुसार सूत्रांक ४९-५५] (०१) प्रत वृत्यंक श्रीआचा-||गंडीता चकलिता, छेदेण छिन्नता, चोदगं उच्छ्रितोदया छल्ली इत्यर्थः, उच्छुसालगं गिरो, अहवा सगलं उमंदो कालीओ बहुरांग सूत्रDD | गीतो, चोदगं खंडाखंडी, खंडाणि दलिता, सिंबलिं वा थोबातो सिंगाउ, थाली सव्वातो चेव, पिंडो समूहो य, उझियधम्मिया-D | पिंडैषणा चूर्णि दोसा। मांसे संजमायपवयणविराहणा, कारणिगगिलाणस्सट्ठा जावइयं मंसगं दलेहि, सो य पुण सट्टो सट्टी वा फरुसंण भणेजा। ॥३४४॥ | खंडे गिलाणणिमित्तं वा मग्गिर्त लोणं दिण्णं, अणामोगेण, पुनमणिता लोणा, सेसं आलावगसिद्धं जाव बहुपरियावण्णो । दसमी IN Dपिंडेसणा समाप्ता ॥ संबंधो गिलाणाहिगारे इहापि गिलाणएण वा, मिक्खणसीलो भिक्खू 'अकु भक्षणे मिक्षा भवन्तीति मिक्षाकाः समणादि भणिता, गिहि पबहतो वा, गिलाणस्स एत्थ वेति-से हंदह णं तस्साहरह खणेध दोण्हवि तेणियं करेति, पलिउंचगया आलो| यमाणे, पिंट संपत्त, कहं पुण पलिउंचति !, पित्तितस्स तिचकटुगं भण्णति, सिंभविपस्स महुरं ण भवति, सेसेसु विवरीय जहि| च्छियं आलोएइ, जहा गिलाणस्स सदति, कदाइ बाधातेणं ण णिजावि थोवं भत्तपाणं गिलाणे, अत्यंतो सूरो, गोणा खंधावारो | हत्थी मत्ततो मूलं वा होजा, इच्चेयाई आयतणांई-आयतणदोसाई, अपसत्थाई संसारस्स, पसत्थाई मोक्खस्स नाणादी । इमा || |वा सत्त पिंडेसणा, तंजहा-असंसट्ठा १ संसट्ठा २ उद्दडा ३ अप्पलेवा ४ उवट्टियाए उम्गहिता ५ पग्गहिता ६ उझिपधम्मियागा। |७, पढमा दोहि वि असंसट्ठा, सत्तुगकम्मासा सुक्खोदणो वा, सयं जायति परो वा देति, गिलाणादिकारणेण वा इतरंपि गिण्हति V. वितिया दोहिवि संसट्ठा, सुठुतरं पच्छेकम्मादोसा वञ्जित्ता, ततिया पाईणादि पण्णवगदिसा गहिता, कुक्कुडीयच्छति वा, कंसरुप्पमयं | वा पहडए वा अनंमि च्छूई, सरगं व समयं पिच्छिगादि, पिडीया छड्डगं पलगं वा परमंसि वा, धरा भूमी, अहावराहं तंजहा ॥३४४॥ [४९-५५] दीप अनुक्रम [३८३३८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[१], अंग सूत्र-[०१] "आचार' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: प्रथम चूलिकाया: प्रथम-अध्ययनं "पिण्डैषणा", एकादशम-उद्देशक: आरब्ध: [356]

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