Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 02
Author(s): Purushottamlal Menariya
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 10
________________ सम्पादकीय प्रस्तावना साहित्य, संगीत, चित्र, मूर्ति और वास्तु-कला प्रादिके माध्यमसे प्रात्माभिव्यक्ति करना मानव-प्रकृतिको एक प्रधान विशेषता रही है। साथ ही प्राप-बीती कहना और पर-बीती सुनना भी मानव-समाजकी नैसर्गिक प्रवृत्ति है, जिसके परिणामस्वरूप कथा-साहित्यका उदय और विकास हुआ है। पूर्व पुरुषों और अनुभवी व्यक्तियोंके ज्ञान का लाभ प्राप्त कर अपने अनुभव एवं ज्ञानका लाभ पाने वाली पीढ़ियों को प्रदान करते रहने की परंपरासे मानव-संस्कृति सदा ही विकासोन्मुख रही है। इस प्रक्रियाके लिये कथानोंका विशेष उपयोग हुआ है, क्योंकि कथानोंके माध्यमसे कोई भी विचार सुगम एवं सुबोध रूपमें प्रस्तुत किया जा सकता है। हमारे समाजमें साहित्य, दर्शन, इतिहास, धर्मशास्त्र आदि अनेकानेक विषयों का ज्ञान कथानोंके माध्यमसे करानेकी अति प्राचीन परंपरा है, जिसके परिणाम-स्वरूप सम्बद्ध विषयोंकी कथाएँ प्रचुर परिमाणमें उपलब्ध होती हैं। __ प्राचीन भारतीय कथा-साहित्य वैदिक कालसे ही भारतमें कथा-साहित्य किसी न किसी रूपमें प्राप्त हो जाता है। साथ ही प्राचीन भारतीय कथानोंका प्रचार विदेशों में भी हुआ है। उदाहरणके लिए एञ्चत्रिका प्रथम विदेशी अनुवाद पहलवी अर्थात् प्राचीन ईरानी भाषामें ईरानके सम्राट खुशरोके दरबारी हकीम बुर्जुए द्वारा सन् ५३१ से ५७६ ई. के बीच किया गया था। इसके पश्चात् पञ्चतंत्र के अनेक अनुवाद यूरोपीय और चीनी आदि भाषाओं में हुए। पञ्चतंत्र, हितोपदेश, कथासरित्सागर प्रादिका प्रभाव मध्य एशिया, युरोप, अरब, और चीन प्रादि देशोंके कथा साहित्य पर भी दृष्टिगत होता है। __ऋग्वेदके स्तुतिपरक सूक्तोंमें "अपालाकी कथा" प्राप्त होती है। हमारे उपनिषदोंमें भी कई कथाएँ निगुम्फित हैं। उदाहरणके लिये केनोपनिषदमें देवताओंकी शक्तिपरीक्षा, कठोपनिषद्म नचिकेताके साहस और छान्दोग्य उपनिषद् में सत्यकाम एवं जानश्रुवा, बृहदारण्यक्में गार्गी और याज्ञवल्क्य. तैत्तिरीयमें प्राश्विनी तथा मुण्डकोपनिषदमें महाशल्य, शौनर और अङ्गिराको कथाएँ कही गई है। रामायण और महाभारतमें इतिहास, धर्म और कल्पनाके आधार पर अनेक कथानोंका समन्वय हुआ है। रामायण और महाभारत सम्बन्धी कथानों द्वारा कालान्तरमें कितने ही कमनीय काव्योंका प्रणयन हुआ है । १ श्री एजर्टन द्वारा सम्पादित-"पंचतंत्र रिकन्स्ट्रक्टेड" और डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का वक्तव्य (पञ्चतन्त्र, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली) पृष्ठ सं०६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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