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श्री कायस्थिति प्रकरण. (९) हजार सांगरोपमनी कायस्थिति छे. तथा देवगति अने नरकगतिने विषे तेत्रीश सागरोपमनी कायस्थिति छे. तथा संज्ञि पंचेन्द्रिय अने पुरुषवेदने विषे बसोथी नवसो सागरोपमथी कांइक अधिक कायस्थिति छे. ९.
. टीकार्थ-पर्याप्त अने अपर्याप्त रुप विशेषण विनाज सामान्ये करीने पंचेन्द्रियने विर्षे संख्याता वर्षे अधिक एक हजार सागरो. पमनी कायस्थिति छे. तेमां पर्याप्त पंचेन्द्रियनी उत्कृष्ट कायस्थिति बसोथी नवसो सागरोपमथी कांइक अधिक जाणवी. तथा देवगति अने नरकगतिने विषे तेत्रोश सागरोपमनी उत्कृष्ठ कायस्थिति छ, कारण के ते गतिवाला जीवो पोताना भवयी चवीने फरीथी (तरत ज) ते ज भव (गति ).मां उत्पन्न थता नथी. ते बन्ने गतिवालानी जघन्य कायस्थिति दश हजार वर्षनी छे. तथा संज्ञिपंचेन्द्रियने विषे अने वेदनी अपेक्षाए पुरुषवेदने विषे बसोथी नवसो सागरोपमथी कांइफ अधिक उत्कृष्ट कायस्थिति छ, अने जघन्यथी अन्तर्मुहूर्तनी छे. ९. गम्भयतिरियनरेसु य, पल्लतिगं सत्तपुरकोडीओ। दसहियपलियसयं थीसु पुवकोडिपहुत्तजुरं ॥१०॥ ___ मूलार्थ--गर्भज तिर्यंच अने मनुष्यने विषे उत्कृष्ट कायस्थिति त्रण पल्योपम अने सात करोड पूर्वनी जाणवी. तथा स्त्रीवेदने विषे एकसो ने दश पल्योपम तथा बेथी नव करोड पूर्वनी कायस्थिति जाणवी. १०..
टीकार्थ-गर्भज तिर्यच अने मनुष्यने उत्कृष्टथी त्रण पल्योपय ने सात करोड पूर्वनी काय स्थिति जाणवी. केमके करोड पूर्व वर्षना आयुष्यवाळो पचेन्द्रिय तिर्यंच करोड पूर्व वर्षना आयुष्य. वाला पंनेन्द्रिय तियेचने विषे वारंवार (फरी फरीने) उत्पन्न याय,