Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 7
________________ आदिवचन जीवन एक रंगमंच है। संसार का हर प्राणी इस मंच पर आता है, विविध प्रकार के अभिनयों की प्रस्तुति देता है और चला जाता है। उपन्यास उन जीवन्त अभिनयों को प्रस्तुत करने का एक माध्यम है। कुछ घटनाएं दृश्य होती हैं, कुछ श्रव्य होती हैं और कुछ पठनीय होती हैं। उपन्यास उन घटनाओं को रोचकता से पढ़ने के लिए प्रेरित करता है। मनुष्य जीवन के उतार-चढ़ावों की घाटी को कैसे पार करता है, अन्त:करण में कब और कैसे अच्छे-बुरे भावों का आरोहण-अवरोहण होता है, कितनी-कितनी प्रेरणाएं और अभिप्रेरणाएं उसके हाथ जुड़ती हैं इन सब तथ्यों को प्रस्तुति देने वाला होता है उपन्यास। आज के इस तनावग्रस्त युग में यह मानसिक थकान को मिटाने वाला और नई पीढ़ी की दिशा को बदलने वाला एक टॉनिक है। प्रस्तुत उपन्यास को वैद्य मोहनलाल चुन्नीलाल धामी ने 'तरंगलोला' नाम से गुजराती भाषा में लिखा। मैंने इसे हिन्दी में रूपान्तरित कर इसका नाम 'पूर्वभव का अनुराग' दिया है। इस उपन्यास का आधार आचार्य पादलिप्त द्वारा प्राकृत भाषा में लिखित 'तरंगवती' नामक सरस कथा है। इसके दस हजार पद्य थे। यह जैन प्राकृत कथा साहित्य का आदिस्रोत है। अनेक जैन आचार्यों ने इस कथा का अपने साहित्य में नामोल्लेख किया है। आचार्य शीलांक 'चउपन्नमहापुरिसचरियं' में लिखते हैं सा णत्थि कला तं णत्थि लक्खणं जं न दीसइ फुडत्थं। पालित्तपाइयविरइय तरंगयइयासु य कहासु।। इस ग्रन्थ के आधार पर नेमिचन्द्रगणी ने उन्नीस सौ बयालीस गाथाओं में तरंगलोला नामक ग्रन्थ लिखा। उसी ग्रन्थ के आधार पर यह उपन्यास लिखा गया। इसमें मुख्यतया तीन पात्रों की जीवन्त कहानी है-पारधी, चक्रवाक और चक्रवाकी। पक्षियों में कितना प्रगाढ़ प्रेम और स्नेह बन्धन होता है? चक्रवाक अपने प्रियतम चक्रवाक के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देती है। निरपराध प्राणी की हत्या हो जाने पर शिकारी पारधी का मन कितना आकुल-व्याकुल होता है और वह भी एक मूक पक्षी की विरह-व्यथा को न सह सकने के पूर्वभव का अनुराग /५

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