Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 9
________________ पुण्यानव कथाकोश प्रशिष्य व रत्नकीतिके शिष्य हेमचन्द्रको दान की गयी थी। यह प्रति ग्रन्थमालाके एक सम्पादक डॉ. हीरालाल जैन-द्वारा प्राप्त हुई। __श - यह प्रति जिनदास शास्त्री, शोलापुर, को है। इसमें उसके लेखन-काल आदिकी कोई सूचना नहीं है। उपर्युक्त पांचों प्रतियोंका विशेष विवरण व उनकी प्रशस्तियोंका मूल पाठ अंगरेजी प्रस्तावनामें पाया जायेगा। (३) प्रस्तुत संस्करण : उसकी आवश्यकता : संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद पुण्यासव-कथाकोशके प्रस्तुत संस्करणमें उपर्युक्त पांच प्राचीन प्रतियोंके आधारसे उसका एक स्वच्छ और प्रामाणिक संस्कृत पाठ उपस्थित करनेका प्रयत्न किया गया है। ग्रन्थमाला सम्पादकोंमें से एक (डा० आ० ने० उपाध्ये ) जब अपने हरिषेणकृत बृहत्-कथाकोशकी प्रस्तावनाके लिए जैन कथा-साहित्यका सर्वेक्षण कर रहे थे, तब उन्हें इस ग्रन्थको प्राप्त करने में बड़ी कठिनाईका अनुभव हुआ । तभी उन्हें इस ग्रन्थका एक उपयोगी संस्करण तैयार करनेकी भावना उत्पन्न हई। इस ग्रन्थकी भाषा और शैली विशेष आकर्षक नहीं हैं. तो भी विषयके महत्त्वके कारण उसके हिन्दी, मराठी और कन्नडमें अनुवाद हुए हैं। यह कथाकोश धर्म और सदाचार सम्बन्धी उपदेशात्मक कथानकोंका भण्डार है। उसमें सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक दृष्टि से अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाओंका समावेश है। इसके कथानक असम्बद्ध नहीं हैं; किन्तु उनका सम्बन्ध अन्यत्र समान घटनात्मक कथाओंसे पाया जाता है। ये कथाएँ यद्यपि जैन आदर्शोके ढांचेमें ढली है, तथापि उनका मौलिक स्वरूप लोकाख्यानात्मक है। सामान्यतः ग्रन्थकनि जैन धर्मके नियमोंको दष्टिमें रखकर इन कथाओंको उनका वर्तमान रूप दिया है। अतः यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रन्थकर्ताने आदर्श नियमोंको कहांतक व किस प्रकार जीवनको व्यावहारिक परिस्थितियों के अनुकूल बनाया है। यथार्थतः इस बातको बड़ी आवश्यकता है कि इस कथाकोशकी पार्श्वभूमिमें श्रावकाचार सम्बन्धी नियमोंका अध्ययन किया जाय। मध्यकालीन श्रावकाचार-कर्ताओंके सम्बन्धमें एक यह बात कही जाती है कि ( आशाधरको छोड़ शेष सब मुनि ही थे) सबने समाजका यथार्थ प्रतिबिम्बन न करके उसका वांछनीय आदर्श रूप उपस्थित किया है। ऐसी परिस्थितिमें यह विपुल और विविध कथा-साहित्य बहुत कुछ कृत्रिम और परम्पराओंसे निबद्ध होनेपर भी, शिलालेखादि प्रमाणोंके अभावमें यथार्थताके चित्रको पूर्ण करने में सहायक हो सकता है। इस दृष्टि से विशाल जैन कथासाहित्यमें पुण्यास्रव कथाकोशका अपना एक विशेष स्थान है। इस ग्रन्थको भाषा भी टकसाली संस्कृत नहीं है, किन्तु उसमें जन-भाषाकी अनेक विलक्षणताएं हैं जिनका भाषा-शास्त्रकी दृष्टिसे महत्त्व है। इन सब बातोंको ध्यानमें रखते हुए इस ग्रन्थके संस्कृत पाठको उपलभ्य सामग्रीको सीमाके भीतर यथाशक्ति सावधानीपूर्वक प्रस्तुत करनेका प्रयत्न किया गया है । पुण्यासबके जो हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं उनके साथ मूल संस्कृत पाठ नहीं दिया गया। अतएव कहा नहीं जा सकता कि वे अनुवाद कहांतक ठीक-ठीक मूलानुगामी हैं। प्रस्तुत अनुवाद यथासम्भव मूलसे शब्दशः मेल खाता हुआ एवं स्वन्तत्रतासे भी पढ़ने योग्य बनाने का प्रयत्न गया किया है। (४) जैन कथा-साहित्य और पुण्यात्रव हरिषेणकृत बृहत्कथाकोशको प्रस्तावनामें प्राचीन जैन साहित्यमें उपलभ्य कथात्मक तत्त्वोंका सिंहावलोकन कराया जा चका है। आराधना सम्बन्धी कथाओं में मनियोंके एवं श्रावकाचार सम्बन्धी आख्यानों में श्रावक-श्राविकाओं (जैन गृहस्थों) के आदर्श चरित्र वर्णित पाये जाते हैं। इनमें विशेषतः देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान, इन छह धार्मिक कृत्योंका महत्व बतलाया गया है। उत्तरकालीन धार्मिक कथाओंके विस्तारका इतिहास संक्षेपत: निम्न प्रकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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