Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 8
________________ प्रस्तावना (१) पुण्यात्रव-कथाकोश जिनरत्नकोश ( भाग १, एच० डी० वेलणकरकृत, पूना, १९४४ ) में रामचन्द्र मुमुक्षु, नेमिचन्द्र गणि और नागराजकृत पुण्यास्रव कथाकोशका उल्लेख है, तथा एक और इसी नामका ग्रन्थ है जिसके काका निर्देश नहीं। रामचन्द्र मुमुक्षुकृत पुण्यास्रव या पुण्यास्रव-कथाकोश एक लोकप्रिय रचना है, विशेषत: उन धार्मिक जैनियोंके बीच जो उसके स्वाध्यायको फलदायी और पुण्यकारक मानते हैं। इस ग्रन्थको प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ देशके विविध भागोंमें पायी गयी हैं। जिनरत्नकोशके अनुसार उसकी प्रतियां भण्डारकर ओ० रि० इन्स्टीटयूट, पूना; लक्ष्मीसेन भट्टारक मठ, कोल्हापुर; माणिकचन्द हीराचन्द भण्डार, चौपाटी, बम्बई; इत्यादि संस्थाओंमें विद्यमान है। कन्नडप्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची (सम्पा० के० भुजबलिशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, १९५८) में पुण्यास्रवको कुछ प्रतियाँ मूडबिद्रीके जैनमठमें, तथा राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारोंकी ग्रन्थसूचीमें जयपुर व आमेरके भण्डारों में उनके अस्तित्वका उल्लेख है। बेल्गोल, बम्बई, मैसूर आदि स्थानोंमें भी इसकी प्रतियां पायी जाती हैं, तथा स्ट्रासवर्ग ( जर्मनी) के संग्रहमें भी इसकी एक प्रति है। अन्य वैयक्तिक संग्रहों में भी विविध स्थानोंपर उनके पाये जानेकी सम्भावना है। पुण्यास्रवकी ओर पाठकोंका आकर्षण भी विशेष रहा है, जिसके फलस्वरूप अनेक भाषाओं में उसके अनुवाद हुए। सन् १३३१ में नागराज कवि द्वारा चम्पूरीतिसे इसका कन्नड़में रूपान्तर किया गया जिसका मराठी बोबी में अनुवाद जिनसेनने सन १८२१ में किया। हिन्दी में पुण्यास्रवके पांडे जिनदासकृत, दौलतरामकत ( सन् १७२० ) जयचन्द्रकृत, टेकचन्द्रकृत और किसनसिंहकृत ( सन् १७१६ ) अनुवाद या उनके उल्लेख पाये जाते हैं। इन अनुवादोंका अध्ययन कर यह देखनेको आवश्यकता है कि उनमें रामचन्द्र मुमुक्षुको प्रस्तुत रचनाका कहांतक अनुसरण किया गया है। वर्तमान में पं० नाथुरामजी प्रेमीके अनुवादकी तीन आवत्तियां प्रकाशित हो चकी है (सन १९०७.१९१६ और १९५९)। एक अन्य हिन्दी अनुवाद परमानन्द विशारदकृत भी प्रकाशित हुआ है ( कलकत्ता, १९३७)। (२) प्रस्तुत संस्करणकी आधारभूत प्रतियाँ पुण्यास्रव कथाकोशका प्रस्तुत संस्करण निम्न पाँच प्राचीन प्रतियोंके आधारसे किया गया है और उनके पाठान्तर दिये गये हैं। ज - यह प्रति दि० ज० अतिशय क्षेत्र, महावीरजी, जयपुर, की है जिसमें लेखक व लेखनकालका उल्लेख नहीं है । प्रस्तुत संस्करणमें इसके पाठान्तर पृ० १७२ से आगे ही लिये जा सके हैं। प-यह प्रति भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, की है। वह सन् १७३८ में लिखी गयी थी, तथा सवाई जयपुर में मेरूकीर्ति-द्वारा शुद्ध की गयी व गुलाबचन्दजी-द्वारा अपने गुरु हर्षकीर्तिको भेंट की गयी थी। फ- यह प्रति दि० ज० मुनि धर्मसागर ग्रन्थभण्डार, अकलूज, (जि० शोलापुर ) की है। इसे शान्तिसागरके शिष्य धर्मसागरने सम्भवतः संवत् २००५ में, संवत् १८९६ में की गयी फलटणको प्रतिपर-से लिखी थी। ब- यह प्रति संवत् १५५९ की है और वह भट्टारक शुभचन्द्रके उत्तराधिकारी भट्टा० जिनचन्द्रके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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