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१४] श्रीपवचनसार भाषाटीका। • भावार्थ-इस गाथामें फिर भी भाचार्यने पांच परमेष्ठीकी वरफ अपनी भक्ति दिखाकर अपने भावोंग निर्मल क्रिया है। मह उत्कट भक्तिका नमूना है___ उत्थानिका-आगे आचार्य मंगलाचरणके पीछे चारित्र भावको धारण करते हैं ऐसी सूचना करते हैं। तेसिं विसुखदसणणाणहाणासमं समासेज । अवस्पधामि सम्म, जत्तो णिव्याणसंपत्ती॥५॥
तेषां विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाभ समासाद्य । ...
उपसम्पधे सम्यं यतो निर्वाणसप्रातिः ॥५॥ . सामान्यार्थ-उन पांच पामेष्ठियोंके विशुद्ध दर्शन'ज्ञानमई प्रधान माश्रमको प्राप्त होकर मैं समताभावको धारण करता हूं निससे मोक्षकी प्राप्ति हो। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(तेसिं) उन पूर्वमें कहे हुए पांच परमेष्ठियोंके (विसुद्धदसणणाणपहाणासम) विशुद्ध दर्शन ज्ञानमई लक्षणधारी प्रधान भाश्रमको (समासेज ) मलेप्रकार प्राप्त होकर (सम्म ) शाम्यमाव रूप चारित्रको ( उपसंपयामि) भलेप्रकार धारण करता हूं (जत्तो) जिस शाम्यभावरूप चारित्रसे (णियाणसंपत्ती) निर्वाणकी प्राप्ति होती है। यहां टीकाकार. खुलासा करते हैं कि मैं आराधना करनेवाला हूं तथा ये अहंत आदिक आराधना करने के योग्य हैं ऐसे माराध्य आराधकका जहां विफल है उसे द्वैत नमस्कार कहते हैं तथा राग नादि औधिक मावोंके विकल्पोंसे रहित जो परम समाधि है उसके बलसे मात्मामें ही आराध्य आराधक भावः होना अर्थात् दूपरा कोई मिन्न पूज्य